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उपासकाध्ययन
समाधान-उक्त दोष ठोक नहीं है। क्योंकि प्रमादका योग भी होना चाहिए। अत: सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रसे युक्त अप्रमादी पुरुषके मोहका अभाव होनेसे मूर्छा नहीं है अतः वह अपरिग्रही है। किन्तु रागादि तो कर्मके उदयसे होते हैं इसलिए वे आत्मस्वभावरूप न होनेसे हेय है । अतः उनमें 'यह मेरे हैं' इस प्रकारका संकल्प परिग्रह है। वही सब दोषोंका मूल है। क्योंकि वह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प होनेपर संरक्षण वगैरह किया जाता है । उसमें हिंसा अवश्य होती है । उसके लिए मनुष्य झूठ बोलता है । चोरी करता है । मैथुन कर्ममें प्रवृत्त होता है। .. इस तरह परिग्रहकी भावनाका मल ममत्वभाव है इसलिए उसे ही परिग्रह कहा है। किन्तु धन धान्य आदि बाह्य वस्तु उस ममत्वभावमें कारण होती हैं इसलिए उन्हें भी परिग्रह कहा है। इसीसे रत्नकरेण्डश्रावकाचारमें दोनोंका समन्वय करके धन धान्य आदि परिग्रहका परिमाण करके उससे अधिकमें निःस्पृह होनेको परिग्रह परिमाणवत कहा है और उसका दूसरा नाम इच्छापरिमाण बतलाया है ।
. पहले लिख आये हैं कि स्वामी कुन्दकुन्दने इस व्रतका नाम 'परिग्रहारम्भविरमण' दिया है अर्थात् परिग्रहपरिमाणवतीको परिग्रहके साथ आरम्भका भी नियम करना चाहिए; किन्तु इस प्रकारका निर्देश अन्यत्र नहीं मिलता । शायद इसका कारण यह हो कि जो परिग्रहका परिमाण कर लेता है उसके आरम्भका परिमाण तो स्वतः हो जाता है। क्योंकि परिग्रहके संचयके लिए ही आरम्भ किया जाता है। आचार्य अमितगतिने अपने उपासकाचारमें लिखा भी है,
"सर्वारम्भा लोक संपद्यन्ते परिग्रहनिमित्ताः।
स्वल्पयते यः सङ्गं स्वल्पयति यः सर्वमारम्भम् ॥७५॥" अर्थात् लोकमें सब आरम्भ परिग्रहके लिए किये जाते हैं । जो परिग्रहको कम करता है वह समस्त आरम्भोंको कम करता है।
तत्त्वार्थसूत्र और उसकी प्राचीन टीकाओंके उक्त कथनको लक्ष्यमें रखकर सोमदेव सरिने भी बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओंमें 'यह मेरा है' इस प्रकारके संकल्पको परिग्रह बतलाकर उसके विषयमें चित्तको संकुचित करने का अर्थात् ममत्वभावको घटानेका विधान किया है।
परिग्रहके सचित्त अचित्त तथा अन्तरंग बहिरंग भेदोंका निर्देश तो सर्वार्थसिद्धि कारने ही कर दिया था। किन्तु उनकी संख्याका निर्देश पुरुषार्थसिद्धयुपाय और उपासकाध्ययनमे मिलता है। किन्तु पुरुषार्थसिद्धय णय (श्लो० ११५-११७) में अन्तरंग परिग्रहके तो चौदह भेद बतलाये हैं और बहिरंग परिग्रहके केवल सचित्त-अचित्त दो ही भेद बतलाये हैं। परन्तु उपासकाध्ययनमें बहिरंग परिग्रहके दस भेद बतलाये हैं । उनमें कुछ सचेतन हैं और कुछ अचेतन हैं। तथा अनेक श्लोकोंके द्वारा परिग्रहकी बुराइयां बतलायो हैं ।
एक गृहस्थको किननी परिग्रहका परिमाण करना चाहिए इसका उल्लेख पूर्वोक्त ग्रन्थोंमें नहीं मिलता। लोग समझते हैं कि एक हजारपति एक करोड़की सम्पत्तिका परिमाण कर ले तो वह भी परिग्रहपरिमाणवती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि परिमाण न करनेसे तो ऐसा परिमाण कर लेना भी बेहतर है; क्योंकि उसकी तृष्णाकी एक मर्यादा तो बंध जाती है । किन्तु परिग्रह परिमाणवतका यह आशय कदापि नहीं है कि श्रावक अधिकसे अधिक बढ़ाकर परिग्रहका परिमाण करे। स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामें इसका अच्छा स्पष्टीकरण किया है । उसमें लिखा है,
__ "जो लोहं णिहणित्ता संतोसरसायणेण संतुट्ठो ।
णिहणदि तिण्हा दुट्टा मण्णंतो विणस्सरं सब्वं ॥३३९॥ जो परिमाणं कुब्वदि धणधाणसुवण्णखित्तमाईणं । उवोगं जाणित्ता अणुब्वयं पंचमं तस्स ॥३४०॥"
१. श्लो० ६१ । २. श्लो० ४३३ ।