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प्रस्तावना
आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र में भोगोपभोगव्रतका वर्णन करते हुए लिखा है, "मयं मांसं नवनीतं मधूदुम्बरपञ्चकम् । अनन्तकाय मज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् ॥ ६ ॥
आमगोरस संपृक्तं द्विदलं पुष्पितौदनम् । दध्यहद्वितयातीतं कुथितान्नं च वर्जयेत् ॥ ७ ॥”
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अर्थात् मद्य, मांस, मक्खन, मधु, पांच उदुम्बर, अनन्तकाय वनस्पति, अनजान फल रात्रिभोजन, बिना पके गोरस में मिला हुआ द्विदल, फपूँदा हुआ भोजन, दो दिनका बासा दही और सड़ा हुआ अन्न छोड़ देना चाहिए ।
इस तरह जिसे प्राथमिक श्रावकका कर्तव्य बतलाया जाता है उसका त्याग भोगोपभोगव्रतमें कराया गया है । श्वेताम्बर परम्परामें इस व्रतमें क्रूर कामोंके करनेका भी निषेध है। योगशास्त्र में उन्हें गिनाया है और पं० आशाघर ने अपने सागारधर्मामृत में उसका उल्लेख करके क्रूर कर्मोंके गिनानेका निषेध किया है । भोगोपभोगव्रतके अतिचार रत्नकरण्डके सिवा अन्य सभी में 'सँ चित्तका आहार, सचित्तसे सम्बन्धि वस्तुका आहार, सचित्त से सम्मिश्रित वस्तुका आहार, जले हुए या अधपके भोजनका आहार और गरिष्ठ भोजनका आहार' ये पाँच बतलाये हैं । राजवार्तिकमें लिखा है कि इनके खानेसे सचित्तका भक्षण करना पड़ता है, इन्द्रियों में उन्माद पैदा होता है और वायु आदिका प्रकोप होता है उसका इलाज करने में पापका संचय होता है तथा मुनिगण भी ऐसे भोजनको ग्रहण नहीं करते । अतः ऐसा आहार त्याज्य है ।
रत्नकरण्डश्रावकाचारमें इस व्रत के अतिचार बिलकुल ही भिन्न हैं, किन्तु हैं उपयुक्त । यथा, "विषय विषतोऽनुपेक्षाऽनुस्मृतिरति लौल्यम तितृषानुभवौ । भोगोपभोगपरिमान्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ||१०||
विषयरूपी विषका आदर करना, भुक्त भोगोंका स्मरण करना, वर्तमान भोगों में अति लिप्सा रखना, भाव भोगोंको प्राप्त करनेकी चाह करना और भोग न भोगते हुए भी यह अनुभव करना कि मैं भोग भोग रहा हूँ, ये पाँच भोगोपभोगपरिमाणव्रतके अतिचार हैं।
आचार्य समन्तभद्रने अतिथिसंविभागव्रतका नाम वैयावृत्य दिया है और उसीमें जिनपूजाको भो सम्मिलित किया है । किन्तु सोमदेव के उपासकाध्ययन में जिनपूजाको सामायिक व्रत में सम्मिलित किया है । और इस व्रतका नाम दान रखा है ।
八
रत्नकरण्ड ( इलो० १११ आदि ) में तपोनिधि अनगारोंको दान देनेका नाम वैयावृत्य है । तत्त्वार्थसूत्र में इसका नाम अतिथि संविभागव्रत है। दोनोंमें केवल नामका अन्तर है अभिप्रायमें अन्तर नहीं है । इसीसे सोमदेव सूरिने स्पष्टार्थक नाम दान देना ही उचित समझा। रत्नकरण्ड में भी आगे ( श्लो० ११३ ) दान नाम दिया है और उसका लक्षण इस प्रकार लिखा है, "सात गुणसहित शुद्ध श्रावकके द्वारा आरम्भ और चूल्हा चक्की आदि सूनाओंके त्यागी मुनियोंका नो पुण्योंके द्वारा आदर-सत्कार करनेको दान कहते हैं ।" रत्नकरण्डमें न तो नौ पुण्योंको बतलाया है और न दाताके सात गुणोंका कोई निर्देश किया है । तत्त्वार्थवार्तिक ( ७|३९) में प्रतिग्रह, उच्चदेशस्थापन, पादप्रक्षालन, अर्चन और प्रणाम आदिको विधि रूपमें । दाताके भी अनसूया, अविषाद, प्रीतियोग, कुशलाभिसन्धिता, दृष्टफलानपेक्षिता, निरुपरोधत्व और अनिदानत्व ये सात गुण बतलाये हैं । पुरुषार्थसिद्धय पाय ( श्लो० १६९ ) में भी ये ही सात गुण गिनाये
बतलाया
१. श्लो० ५ । २१-२३ । २. “ सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुष्पकाहाराः || ” - तस्वा० सू० अ० ७, सू० ३५ ॥