________________
९८
उपासकाध्ययन
१०वाँ कल्प
अन्तर, आत्मा और कर्ममें कर्मकर्तृ भाव नहीं भवसेन नामक मुनिकी दुश्चेष्टा गोंका वर्णन है, जो अपने मनको दूषित करता है वही
६१.६३ हिंसक है, सुख-दुःखसे पुण्य-पापका बन्ध, केवल ११वाँ कल्प
बाह्यक्रिया व्यर्थ है
११५-१२३ अमढष्टि अंगमें प्रसिद्ध रेवती रानीकी
सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, ज्ञाताके दोषसे मति कथा
६१-७० विपरीत होती है, ज्ञानके भेद, १२४-१२६ १२वाँ कल्प
चारित्रका स्वरूप और भेद, सम्यक्त्वहीन सम्यक्त्वके गुण, साधर्मीके अपराधोंको ढकनेका
ज्ञान और ज्ञानहीन चारित्रकी व्यर्थता, निर्देश, ऐसा नहीं करनेवालेको सम्यक्त्वकी
सम्यक्त्वसे सुगति, ज्ञानसे कीर्ति, चारित्रसे प्राप्ति दुष्कर, उपगूहन अंगमें प्रसिद्ध जिनेन्द्र
पूजा और तीनोंसे मोक्ष, तीनोंका स्वरूप भक्तकी कथा ७१-७४
१२७.१२८ १३-१४वाँ कल्प
२२वाँ कल्प परीषह आदिसे घबराकर धर्मसे च्युत होते . व्रत और सम्यक्त्व, गृहीतके दो भेद, आठ साधर्मीका स्थितिकरण तथा संघको वृद्धिका
मूल गुण, मद्यकी बुराइयां, मद्यपायो संन्यासी. निर्देश; और स्थितिकरण अंगमें प्रसिद्ध
को कथा
१२८-१३० वारिषेणकी कथा
७५-८२
२३वाँ कल्प १५,१६,१७,१८वाँ कल्प
मद्यव्रती चौरको कथा
१३१.१३३ जिनबिम्ब, जिनालय आदिके द्वारा धर्मको २४वाँ कल्प प्रभावना करना, प्रभावना अंगमें प्रसिद्ध वन- मांसभक्षणकी बुराइयां, धर्म सेवन न करने कुमारको कथा
८२-९३
वालोंको ताड़ना, हिंसाके त्यागका उपदेश, १९.२०वाँ कल्प
मधुमें दोष, पांच उदुम्बर फलोंमें सूक्ष्म जीवोंका वात्सल्य, विनय, वैयावत्य तथा भक्तिका वास, मद्यादिका सेवन करनेवालों तथा स्वरूप
अवतियों के साथ खान-पानका निषेध, चर्मपात्रमें वात्सल्यकी आवश्यकता संयमी जनोंके उपकार
रखे हुए जलादिके सेवनका निषेध, का उपदेश, वात्सल्य अंगमें प्रसिद्ध विष्णु मुनिकी
मांस अन्न और दूधमें अन्तर, बौद्ध, सांख्य कथा
९४-१०३
और चार्वाक आदिके मतको न मानकर मांस२१वाँ कल्प
का त्याग करना चाहिए, लालसापूर्वक मांस सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति के दो प्रकार, बाह्यसाधन,
खानेवालेको दोहरा पाप, मांसभक्षणका सम्यग्दर्शनके दो भेद, सम्यग्दर्शनकी पहचान,
संकल्प करनेवाले राजाकी कथा १३३-१४२ प्रशम, संवेग, अनुकम्पा तथा आस्तिक्यका
२५वाँ कल्प लक्षण, सम्यग्दर्शनके तीन और दस भेद । तथा दस भेदोंका स्वरूप १०४-११४
मांसत्यागी चाण्डालको कथा १४२-१४३ गृहस्थके ग्यारह और यतिके चार भेद, शल्यके २६वाँ कल्प तीन भेद और उनको दूर करनेका उपाय, श्रावकोंके बारह उत्तर गुण, पांच अणुव्रत, सम्यग्दर्शनकी महिमा, सम्यग्दर्शनके पचीस व्रतका लक्षण, पांच पापोंके सेवनसे दुर्गति, दोष, निश्चयनयसे रत्नत्रयका स्वरूप, रत्न- हिंसा और अहिंसाका लक्षण, प्रमत्तका लक्षण, प्रय आत्मस्वरूप है, आत्मा और कर्ममें अहिंसाग्रतका लक्षण, सब काम देखकर और
०३.९४
विष्णु मुनिका