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सोमदेव विरचित [कल्प ४१, श्लो० ७५५ पुंसः कृतोपवासस्य बारम्भरतात्मनः। कायक्लेशः प्रजायत गजस्नानसमक्रियः ॥७५५॥ 'अनवेशाप्रतिलेखनदुष्कर्मारम्भदुर्मनस्काराः। 'आवश्यकविरतियुताश्चतुर्थमेते विनिघ्नन्ति ॥७५६॥ विशुद्धनान्तरात्मायं कायक्लेशविधि विना। किमग्नेरन्यदस्तीह काञ्चनाश्मविशुद्धये ।।७५७॥ हस्ते चिन्तामणिस्तस्य दुःखद्रुमदवानलः ।
पवित्रं यस्य चारिश्चित्तं सुकृतजन्मनः ॥७५८।। इत्युपासकाध्ययने प्रोषधोपवासविधि मैकचत्वारिंशत्तमः कल्पः ।
जो पुरुष उपवास करके भी अनेक प्रकारके आरम्भोंमें फंसा रहता है, उसका उपवास केवल कायक्लेशका ही कारण होता है और उसकी क्रिया हाथीके स्नानकी तरह व्यर्थ है ||७५५।।
भाषार्थ-हाथी स्नान करनेके बाद सैंडमें धूल भर-भरकर अपने ऊपर डाल लेता है अतः उसका स्नान व्यर्थ होता है। उसी तरह जो उपवास करके भी गार्हस्थिक धन्धोंमें फंसा रहता है उसका उपवास केवल शरीरको कष्ट देता है, आत्माका उससे कुछ भी लाभ नहीं होता।
बिना देखे और बिना साफ किये किसी भी पापकार्यसे युक्त आरम्भको करना, बुरे विचार लाना और सामायिक, वन्दना, प्रतिक्रमण आदि षटकोको न करना, ये काम प्रोषधोपवासव्रतके घातक हैं। अतः उपवासके दिन इस प्रकारकी असावधानी नहीं करनी चाहिए ॥७५६॥
[यह कहा जा सकता है कि उपवास करनेसे शरीरको कष्ट होता है और शरीरको कष्ट देनेसे आत्माका कुछ लाभ नहीं है । अतः उपवास नहीं करना चाहिए । इस प्रकारको आपत्ति करनेवालोंको ग्रन्थकार उत्तर देते हैं-]
शरीरको कष्ट दिये बिना शरीरमें रहनेवाली आत्मा विशुद्ध नहीं हो सकती। सुवर्ण पाषाणको शुद्ध करके उसमें-से सोना निकालनेके लिए क्या अग्निके सिवा दूसरा कोई उपाय है ? अग्निमें तपानेसे ही सोना शुद्ध होता है, वैसे ही शरीरको कष्ट देनेसे आत्मा विशुद्ध होती है ॥७५७॥
जिस पुण्यात्मा पुरुषका चित्त चारित्रसे पवित्र है, चिन्तामणिरत्न उसके हाथमें है, जो दुःखरूपी वृक्ष को जलानेके लिए अग्निके समान है। चारित्र ही वह चिन्तामणि रत्न है जो दुःखोंको नष्ट करनेवाला है ॥७५८॥
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें प्रोषधोपवासविधि नामक एकतालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
१. "अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मत्यनुपस्थानानि ॥३४॥"-तत्त्वार्थसूत्र ७-३४ । “ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमष्टान्यनादरास्मरणे । यत्प्रोषधोपवासे व्यतिलङ्गनपञ्चकं तदिदम् ॥११०॥" रत्नकरण्डश्रा०। "अनवेक्षिताप्रमाजितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः। स्मृत्यनुपस्थापनमनादरश्च पञ्चोपवासस्य ॥१९३॥"-पुरुषार्थसि० । २. षडावश्यकरहिताः। ३. उपवासम् । ४. सुकृतजन्मनः ।-धर्मरत्नाकर पृ० ११४ ।। सुकृतिज-अ० ज० मु०।