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किञ्च -
सोमदेव विरचित
[ कल्प ४६, श्लो० ९३१
यथौषधक्रिया रिक्ता रोगिणोऽपथ्यसेविनः । क्रोधनस्य तथा रिक्ताः समाधिश्रुत संयमाः ॥ १३१ ॥ मानदावाग्निदग्धेषु मदोषे रकषायिषु । नृद्रुमेषु प्ररोहन्ति न सच्छायोचिताङ्कुराः ॥१३२॥ यावन्मायानिशालेशोऽप्यात्माम्बुषु कृतास्पदः । न प्रबोधश्रियं तावद्धत्ते चित्ताम्बुजीकरः ॥१३३॥ लोभकीसचिह्नानि चेतः स्त्रोतांसि दूरतः । गुणाध्वन्यास्त्यजन्तीह चण्डालसरसीमिव ॥१३४॥ तस्मान्मनोनिकेतेऽस्मिन्निदं शल्यचतुष्टयम् । यतेतोद्धर्तुमात्मशः क्षेमाय शमकीलकैः ||३५|| षट्स्वर्थेषु विसर्पन्ति स्वभावादिन्द्रियाणि षट् । तत्स्वरूपपरिज्ञानात्प्रत्यावर्तेत सर्वदा ॥१३६॥
जैसे अपथ्य सेवन करनेवाले रोगीका दवा सेवन व्यर्थ है वैसे ही क्रोधी मनुष्यका ध्यान, शास्त्राभ्यास तथा संयम सब व्यर्थ हैं ॥ ९३१ ॥
मानरूपी वनकी आगसे जले हुए और मदरूपी खारी मिट्टीसे सने हुए मनुष्यरूपी वृक्षोंमें अच्छी छाया देनेवाले नये अंकुर नहीं उगते । अर्थात् जैसे वनकी आगसे जले हुए और खारी मिट्टीसे सने हुए वृक्षमें नये अंकुर पैदा नहीं होते वैसे जो मनुष्य घमंडी और अहंकारी है। उनमें भी सद्गुण प्रकट नहीं हो सकता ॥ ९३२ ॥
मायाकी बुराई
जैसे थोड़ी-सी भी रातके रहते हुए जलाशय में कमल नहीं खिलते वैसे ही आत्मा में थोड़ी-सी भी मायाके रहते हुए चित्त बोधको प्राप्त नहीं होता । अर्थात् मायाचारीके हृदयमें ज्ञानका प्रवेश नहीं होता || ९३३ ॥
लोभी बुराई
जैसे गुणी पथिक चाण्डालोंके तालाबको दूरसे ही छोड़ देते हैं क्योंकि उसके सोतों में हड्डियाँ पड़ी होती हैं वैसे ही जिसके चित्तमें लोभका वास होता है उसे गुण दूरसे ही छोड़ देते हैं । अर्थात् लोभी मनुष्य के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं ॥१३४॥
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अतः आत्मदर्शी मनुष्यको अपने कल्याणके लिए संयमरूपी कीलके द्वारा अपने मनरूपी मन्दिरसे इन चारों शल्योंको निकालने का प्रयत्न करना चाहिए || १३५|| छहों इन्द्रियाँ स्वभावसे ही अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं । अतः उन विषयोंके स्वरूपको जानकर सदा उन इन्द्रियों को
१. क्षारः । २. कमलसमूहः । ३. अस्थि । ४. पथिकाः ।