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-६४०] उपासकाध्ययन
३३५ अपाते सुन्दरारम्भैविपाके विरसक्रियः। विषैर्वा विषयIस्ते कुतः कुशलमात्मनि ॥३७॥ दुश्चिन्तनं दुरालापं दुर्व्यापारं च नाचरेत् । व्रती व्रतविशुद्धयर्थ मनोवाक्कायसंश्रयम् ॥६३८॥ अभङ्गानतिचाराभ्यां ग्रहीतेषु व्रतेषु यत् । रक्षणं क्रियते शश्वत्तद्भवेद् व्रतपालनम् ॥६३६॥ वैराग्यभावना नित्यं नित्यं तत्त्वविचिन्तनम् ।
नित्यं यत्नश्च कर्तव्यो यमेषु नियमेषु च ॥६४०॥ तत्र दृष्टानुश्राविकविषयवितृष्णस्य मनोवशीकारसंशा वैराग्यम् । प्रत्यक्षानुमानागमानुभूतविषयाऽसंप्रमोषस्वभावा स्मृतिस्तत्त्वविचिन्तनम् । बाह्याभ्यन्तरशौचतपःस्वाध्यायप्रणिधाना नियमाः । अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहानियमाः।
इत्युपासकाध्ययने प्रकीर्णकविधिर्नाम षट्चत्वारिंशत्तमः कल्पः।
उनके विषयों में फंसनेसे बचाना चाहिए ॥९३६॥ ये विषय विषके समान हैं। जब प्राप्त होते हैं तो अच्छे मालूम होते हैं किन्तु जब वे अपना फल देते हैं तो अत्यन्त विपरीत हो जाते हैं । जो आत्मा इन विषयोंके चक्करमें फंसा हुआ है उसकी कुशल कैसे हो सकती है ? ॥१३७॥
व्रती पुरुषको अपने व्रतोंको शुद्ध रखनेके लिए मनमें बुरे विचार नहीं लाना चाहिए । वचनसे बुरी बात नहीं कहनी चाहिए और शरीरसे बुरी चेष्टा नहीं करनी चाहिए। जो व्रत ग्रहण किये हों उनमें न तो अतिचार लगने दे और न व्रतको खण्डित होने दे । इस प्रकार जो व्रतोंकी रक्षा की जाती है इसे ही व्रतोंका पालन करना कहा जाता है ॥९३८-९३६॥
भावार्थ-जब व्रतका ध्यान रखते हुए उसका एकदेश खण्डित हो जाता है उसे अतिचार कहते हैं । और व्रतका कतई ध्यान न रखकर उसे तोड़ डालना भंग कहलाता है । जो व्रत लो उसे खूब सोच-समझकर लो, जो कुछ सोचना-विचारना हो वह व्रत लेनेसे पहले ही सोचविचार लो। और जब व्रतको ले लो तो उसे पूरे प्रयत्नके साथ पालो, न तो उसमें कोई दोष लगने दो और न व्रतको छोड़नेकी कोशिश करो। यदि कभी अज्ञान या प्रमादसे व्रत खण्डित हो जाये तो यह सोचकर कि अब तो यह टूट ही गया उसे छोड़ मत बैठो बल्कि प्रयत्नपूर्वक उसे फिर धारण करो । ऐसी सावधानता रखनेसे ही व्रतोंका पालन हो सकता है।
. अतः सदा वैराग्यको भाना चाहिए। सदा तत्त्वोंका चिन्तन करते रहना चाहिए और सदा यम और नियमों में प्रयत्न करते रहना चाहिए ।। ६४०॥
देखे हुए और सुने हुए विषयोंकी तृष्णाको छोड़कर मनको वशमें करनेको वैराग्य कहते हैं । प्रत्यक्षसे, अनुमानसे और आगमसे जाने हुए पदार्थोंका जो भ्रान्तिरहित स्मरण है उसे तत्वचिन्तन कहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर शौच तथा सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ध्यानको यम कहते हैं और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहको नियम कहते हैं ।
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें विविध विधियोंको बतलानेवाला छियालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।