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उपासकाध्ययन
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अधः पशुनरस्वर्गगतिसंगतिकारणम् ॥६२८॥ 'वेणुमूलैरजाटोमूत्रैश्चामरैः समा। माया तथैव जायेत चतुर्गतिवितीर्णये ॥२६॥ 'क्रिमिनीलीवपुर्लेपहरिद्वारागसंनिभः । लोभः कस्य न संजातस्तद्वत्संसारकारणम् ॥६३०।।
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मान जीवको पशुगतिमें उत्पन्न होनेका निमित्त होता है। जैसे गीली लकड़ी थोड़े कालमें ही नमने योग्य हो जाती है वैसे ही जो थोड़े समयमें ही शान्त हो जाता है वह अजघन्य शक्तिवाला मान है । ऐसा मान जीवको मनुष्यगतिमें उत्पन्न कराता है। जैसे बेत जल्दी ही नम जाता है वैसे ही जो जल्दी ही शान्त हो जाये वह जघन्य शक्तिवाला मान है ऐसा मान जीवको देवगतिमें उत्पन्न कराता है ।। ९२८ ॥
इसी प्रकार बाँसकी जड़, बकरीके सींग, गोमूत्र और चामरोंके समान माया क्रमशः चारों गतियों में उत्पन्न करानेमें निमित्त होती है। अर्थात् जैसे बाँसकी जड़ में बहुत-सी शाखा-प्रशाखा होती है वैसे ही जिसमें इतने छल-छिद्र हों कि उनका कोई हिसाब ही न हो, उसे उत्कृष्ट शक्तिवाली माया कहते हैं। जैसे बकरीके सींग टेढ़े होते हैं उस ढंगका टेढ़ापन जिसके व्यवहारमें हो वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाली माया है । जैसे बैल कुछ मोड़ा देकर मूतता है उतना टेढ़ापन जिसमें हो वह अजघन्य शक्तिवाली माया है और जैसे चामर ढोरते समय थोड़ा मोड़ा खा जाते हैं किन्तु तुरन्त ही सीधे हो जाते हैं वैसे ही जिसमें बहुत कम टेढ़ापन हो जो जल्द ही निकल जाये वह जवन्य शक्तिवाली माया है । चारों प्रकारकी माया क्रमसे जीवको चारों गतिमें उत्पन्न करानेमें कारण है ॥ ९२९ ।।
__ किरमिचके रंग, नीलके रंग, शरीरके मल और हल्दीके रंगके समान लोभ शेष कषायोंकी तरह किस जीवके संसार-भ्रमणका कारण नहीं होता । जैसे किरमिचका रंग पक्का होता है वैसे ही जो खूब गहरा और पक्का हो वह तो उत्कृष्ट शक्तिवाला लोभ है। जैसे नीलका रंग किरमिचसे कम पक्का होता है मगर होता वह भी गहरा ही है वैसे ही जो कम पक्का और गहरा राग होता है वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला लोभ है । जैसे शरीरका मल हलका गहरा होता है वैसे ही जो हलका गहरा राग होता है वह अजघन्य शक्तिवाला लोभ है । तथा जैसे हल्दीका रंग हलका होता है और जल्दी ही उड़ जाता है वैसे ही जो बहुत हलका राग होता है वह जघन्य शक्तिवाला लोभ है। ये चारों प्रकारके लोभ जीवको क्रमशः चारों गतियोंमें उत्पन्न करानेमें निमित्त होते हैं ॥ १३ ॥
१. "वसीमूलं मेसस्स सिगं गोमुत्तियं च खोरुप्पम् । णिरि-तिरि-णर-देवत्तं उविति जीवा हु मायवसा ॥११३॥''-पञ्चसं० १ । २. -र्गोमूत्र्या-धर्मर० ५० १४१ । ३. "किमिराय चक्कमल कद्दमोय तह चेय जाण हारिदं । णिर-तिरि-णरदेवत्तं उविति जीवा हु लोहवसा ॥११४॥"-पंचसं० १ ।