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सोमदेव विरचित [कल्प ४६, श्लो० १२५ अप्रत्याख्यानरूपाश्च देशवतविघातिनः ॥२५॥ प्रत्याख्यानस्वभावाः स्युः संयमस्य विनायकाः। चारित्रे तु यथाख्याते कुर्युः संज्वलनाः पतिम् ॥६२६॥ पाषाणभूरजोवारिलेखाप्रख्यत्वभाग्भवन । क्रोधो यथाक्रमं गत्यै श्वभ्रतिर्यनुनाकिनाम् ॥२७॥ शिलास्तम्भास्थिसाध्मवेत्रवृत्तिद्धितीयकः।
कषाय सम्यग्दर्शनको घातती हैं अर्थात् सम्यग्दर्शनको नहीं होने देतीं उन्हें अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। जो कषाय सम्यग्दर्शनको तो नहीं घाततीं किन्तु देशवतको घातती हैं उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं ॥ ९२५ ॥ जो कषाय न तो सम्यग्दर्शनको रोकती हैं और न देशचारित्रको रोकती हैं किन्तु संयमको रोकती हैं, उन्हें प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। और जो कषाय केवल यथाख्यात चारित्रको नहीं होने देतीं उन्हें संज्वलनकषाय कहते हैं ॥१९२६ ॥
. चारों क्रोध आदि कषायोंमें से प्रत्येकके शक्तिकी अपेक्षासे भी चार-चार भेद होते हैं । पत्थरकी लकीरके समान क्रोध, पृथिवीकी लकीरके समान क्रोध, धूलिकी लकीरके समान क्रोध और जलकी लकीरके समान क्रोध । जैसे पत्थरकी लकीरका मिटना दुष्कर है वैसे ही जो क्रोध बहुत समय बीत जानेपर भी बना रहता है वह उत्कृष्ट शक्तिवाला होता है और ऐसा क्रोध जीवको नरक गतिमें ले जाता है । जैसे पृथ्वीकी लकीर बहुत समय बाद मिटती है वैसे ही जो क्रोध बहुत समय बीत जानेपर मिटे वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला क्रोध है ऐसा क्रोध जीवको पशुगतिमें ले जाता है। जैसे धूलमें की गयी लकीर कुछ समयके बाद मिटती है वैसे ही जो क्रोध कुछ समयके बाद मिट जाये वह अजघन्य शक्तिवाला क्रोध है । ऐसा क्रोध जीवको मनुष्य गतिमें उत्पन्न करता है। जैसे पानीमें की गयी लकीर तुरन्त ही मिट जाती है वैसे ही जो क्रोध तुरन्त ही शान्त हो जाये वह जघन्य शक्तिवाला क्रोध है। ऐसा क्रोध जीवको देवगतिमें उत्पन्न करानेमें निमित्त होता है ॥ ९२७ ।।
मान कषायके भी शक्तिकी अपेक्षा चार भेद हैं-पत्थरके स्तम्भके समान, हड्डीके समान, गीली लकड़ीके समान और बेतके समान । जैसे पत्थरका स्तम्भ कभी नमता नहीं है वैसे ही जो मान जीवको कभी विनयी नहीं होने देता वह उत्कृष्ट शक्तिवाला मान है, ऐसा मान जीवको नरकगतिमें जानेका निमित्त होता है । जैसे हड्डी बहुत काल बीते बिना नमने योग्य नहीं होती वैसे ही जो बहुत काल बीते बिना जीवको विनयी नहीं होने देता वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला मान है । ऐसा
मावण्वन्तः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः । समेकीभावे वर्तते । संयमेन सहावस्थानादेकीभय ज्वलन्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः क्रोधमानमायालोभाः।"-सर्वार्थसिद्धि ८-१० । “सम्मत्त देससंजमसंसदीघाइकसाई पढमाइं। तेसि तु भवे नासे सडाई चउहं उप्पत्ति ॥११०॥"-प्रा. पंचसंग्रह १ ।
१. विनाशका:-धर्मरत्ना० ५० १४१ । २. "सिलभेय पुढविभेया धूलोराई य उदयराइसमा । णिर-तिरि-णर देवत्तं उविति जीवा हु कोहवसा ॥१११॥"-प्रा० पञ्चसंग्रह १। ३. “सेलसमो अट्टि समो दासजमो तह य जागवेत्तसमो। णिर-तिरि-णर-देवत्तं उविती जीवा ह माणवसा ॥११॥"-पं० सं०१।