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सोमदेव विरचित [कल्प ४६, श्लो० ६२२अनिहितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतम् । तष मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः ।।२२।।
अथवा
अन्तर्बहिर्मललोषादात्मनः शुद्धिकारणम्। । शारीरं मानसं कर्म तपः प्राहुस्तपोधनाः ॥१२॥ कषायेन्द्रियदण्डानां विजयो व्रतपालनम्।
स्थान भी चौदह हैं । सब कर्मोंमें मोहनीय कर्म प्रबल है । इसीके कारण आत्माके स्वाभाविक गुण विकृत हो रहे हैं । गुणस्थानोंकी रचना जोवोंके मोहके हीन और अधिक होनेके आधारपर की गयी है । मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिवादरसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये चौदह गुणस्थान हैं। संसारके सब जीव अपनेअपने आध्यात्मिक विकासकी कमी-वेशीके कारण इन चौदह गुणस्थानोंमें बँटे हुए हैं । इनमें से प्रारम्भ के चार गुणस्थान तो नारकी, तिर्यञ्च मनुष्य और देव सभीके होते हैं। पाचवाँ गुणस्थान केवल समझदार पशु-पक्षियों और मनुष्योंके ही होता है। आगेके सब गुणस्थान संयमी मनुष्योंके ही होते हैं। चौदहवें गुणस्थानसे जीव सिद्धि या मुक्ति प्राप्त करता है। गति, इन्द्रिय, काय, योग वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं। इनके द्वारा भी संसारी जीवोंको जाना जाता है। जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थानोंका कथन गोमट्टसार जीवकाण्ड तथा धवला टीकाके प्रथम भागसे जानना चाहिए ।
तपका स्वरूप अपनी शक्तिको न छिपाकर जो कायक्लेश किया जाता है, शारीरिक कष्ट उठाया जाता है उसे तप कहते हैं । किन्तु वह तप जैनमार्गके अविरुद्ध यानी अनुकूल होनेसे ही लाभदायक हो सकता है । अथवा अन्तरग और बाह्य मलके संतापसे आत्माको शुद्ध करनेके लिए जो शारीरिक और मानसिक कर्म किये जाते हैं उसे तपस्वीजन तप कहते हैं ॥ ९२२-९२३ ॥
भावार्थ-उपवास करना, भूखसे कम खाना, रस आदि छोड़ना ये सब ऐसे तप हैं जिन्हें गृहस्थ पाल सकता है। इनसे मनका भी नियमन होता है और शरीरको कष्ट भी होता है । शरीरको कष्ट देनेका प्रयोजन इतना ही है कि मनुष्य कष्टसहिष्णु बना रहे और कभी अचानक कष्ट आ पड़नेपर एकदम घबरा न उठे। किन्तु मनको वशमें किये बिना शरीरको हो कष्ट देना व्यर्थ है।
संयमका स्वरूप आत्माका कल्याण चाहनेवालोंके द्वारा जो कषायोंका निग्रह, इन्द्रियोंका जय, मन, वचन
२. "अनिगहितवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तपः।"-सर्वार्थसिद्धि ६-२४ ।