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उपासकाध्ययन चतुर्दशविधो बोध्यः स प्रत्येकं यथागमम् ॥२०॥ पादितः पञ्च तिर्थक्षु चत्वारि श्वभ्रिमाकिनोः ।
गुणस्थानानि मन्यन्ते नृषु चैव चतुर्दश ॥२१॥ आगमोंसे जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें पहलेके पाँच गुणस्थान होते हैं। देव और नारकियोंमें पहलेके चार गुणस्थान होते हैं और मनुष्योंमें चौदहों गुणस्थान होते हैं ॥ ९२०-९२१ ।।
भावार्थ-साधारण तौरपर तो जो कुछ मनोयोगपूर्वक पढ़ा जाता है वह स्वाध्याय है किन्तु वस्तुतः जो स्व यानी आत्माके लिए पढ़ा जाता है वही स्वाध्याय है। इसीलिए अध्यात्मविद्याके ग्रन्थोंका अध्ययन करनेको स्याध्याय बतलाया है । आत्मा क्या है, उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, यह संसार कैसे होता है, मुक्ति कैसे होती है, आत्माके गुण कौम हैं आदि बातोंका जानना ही सच्चा ज्ञान है । अपनेको न जानकर यदि सबको जान भी लिया तो उससे क्या ? सब शास्त्र चार विभागोंमें बँटे हुए हैं। उन विभागोंको अनुयोग कहते हैं। जिन शास्त्रोंमें महापुरुषोंका जीवनवृत्तान्त तथा कथानकोंके द्वारा पुण्य और पापका फल बतलाया गया हो वे सब प्रथमानुयोगमें आ जाते हैं। जिनमें लोकका स्वरूप चारों गतियोंका वर्णन वगैरह हो वे करणानुयोगमें आ जाते हैं। जिनमें आचारका वर्णन हो ये चरणानुयोगमें आ जाते हैं और जिनमें जीव अजीव आदि द्रव्योंका या सात तत्त्वोंका वर्णन हो वे सब द्रव्यानुयोगमें आ जाते हैं । इनमें से सबसे पहले गृहस्थको प्रथमानुयोगके शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिए। उनसे रोचकता भी बनी रहती है और सब सिद्धान्तोंका ज्ञान भी सुगम रीतिसे हो जाता है। उसके बाद फिर अन्य अनुयोगोंके शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिए । और जब सिद्धान्तोंका अच्छा ज्ञान हो जाये तो गोम्मट्टसार आदि ग्रन्थोंसे गुणस्थान, मार्गणास्थान तथा जीवस्थानका अनुगम करना चाहिए। सारांश यह कि प्रत्येक गृहस्थको स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए । जैन सिद्धान्तमें संसारके सब जीवोंका लेखा-जोखा रखनेके लिए जीव समास, गुणस्थान और मार्गणाओंका वर्णन विस्तारसे मिलता है । इनमें से प्रत्येकके चौदह-चौदह भेद हैं । एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियअसंज्ञी और पञ्चेन्द्रियसंज्ञी जीव बादर ही होते हैं, ये सातों पर्यातक और अपर्याप्तकके भेदसे चौदह होते हैं । जिन जीवोंके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है उन्हें एकेन्द्रिय कहते हैं, जैसे-पृथ्वीकायिक, जलकायिक आदि जीव । जिनके स्पर्शन और स्सना दो इन्द्रियाँ होती हैं उन्हें दो इन्द्रिय जीव कहते हैं जैसे-लट । जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण तीन इन्द्रियाँ होती हैं उन जीवोंको त्रीन्द्रिय कहते हैं, जैसे चिऊँटी। जिन जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु चार इन्द्रियाँ होती हैं, उनको चतुरिन्द्रिय कहते हैं, जैसे मक्खी । और जिनके उक्त इन्द्रियोंके साथ कान भी होते हैं, उन्हें पञ्चेन्द्रिय कहते हैं जैसे मनुष्य । जिन पञ्चेन्द्रियोंके मन भी होता है, उन्हें संज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहते हैं और जिनके मन नहीं होता है उन्हें असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहते हैं । इनमें सब संसारी जीव गर्भित हो जाते हैं, इसलिए उन्हें जीवसमास कहते हैं । इसी तरह गुण
१. "सुरणारएसु चत्तारि होति तिरिएसु जाण पंचेव । मणुयगईए वि तहा चोद्दस गुणणामधेयाणि ॥५७॥"-प्रा०पञ्चसंग्रह १।
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