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उपासकाध्ययन
स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतेस्तवः । षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ॥ ११२ ॥ आचार्योपासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् । तत्क्रियाणामनुष्ठानं श्रेयःप्राप्तिकरो गणः ॥११३॥ शुचिर्बिनयसंपन्नस्तनुंचापलवर्जितः । श्रष्टदोषविनिर्मुक्तमधीतां गुरुसंनिधौ ॥१४॥ अनुयोगगुणस्थानमार्गणास्थानकर्मसु । अध्यात्मतत्त्वविद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ॥ १५॥
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देवपूजा की विधि
सुज्ञ जनोंने 'गृहस्थोंके लिए देवपूजाके विषय में छह क्रियाएँ बतलायी हैं - पहले अभिषेक, फिर पूजन, फिर भगवान्के गुणोंका स्तवन, फिर पञ्च नमस्कार मन्त्र वगैरहका जाप, फिर ध्यान और अन्त में जिनवाणीका स्तवन । इसी क्रमसे जिनेन्द्र देवकी आराधना करनी चाहिए ॥ ९९२ ॥
कल्याणकी प्राप्तिके साधन
आचार्यकी उपासना, देवशास्त्र गुरुकी श्रद्धा, शास्त्र के अर्थका विवेचन, उसमें बतलायी गयी क्रियाओंका आचरण ये सब कल्याणकी प्राप्ति करनेवाले हैं ॥ ९९३ ॥
अपने कल्याणके इच्छुक शिष्यसमुदायको पवित्र होकर तथा शारीरिक चपलताको छोड़कर विनयपूर्वक गुरुके समीपमें आठ दोषोंसे रहित अध्ययन करना चाहिए ।। ११४ ॥
भावार्थं—आचार्य परमेष्ठी या उपाध्याय परमेष्ठी गुरु कहलाते हैं। उनसे विनयपूर्वक अध्ययन, शास्त्रचची, उनकी आज्ञाका पालन आदि करना चाहिए। ज्ञानाराधनके आठ दोष होते हैं – स्वाध्यायके समय का ध्यान न रखना पहला दोष है । शुद्ध उच्चारण न करना, अक्षरादिको छोड़ जाना दूसरा दोष है । शास्त्रका अर्थ ठीक न करना तीसरा दोष है । न उच्चारण ठीक करना और न अर्थ ठीक करना चौथा दोष है। जिनसे पढ़ा है या विचारा है उनका नाम छिपाना पाँचवाँ दोष है । जो पढ़ा है उसको अवधारण न करना छठा दोष है । विनयपूर्वक अध्ययन न करना सातवाँ दोष है । और गुरुका आदर न करना आठवाँ दोष है। इन आठ दोषों को टालकर गुरुसे अध्ययन करना चाहिए ।
स्वाध्यायका स्वरूप
चारों अनुयोगोंके शास्त्र तथा गुणस्थान और मार्गणास्थानका और अध्यात्म तत्त्वरूप विद्याका पढ़ना स्वाध्याय है ॥ ९९५ ॥
१. श्रुताराधनम् । २. शरीर । ३. अकाल १, अविनय २, अनवग्रह ३, अबहुमान ४, निह्नव ५, अव्यंजन ६, अर्थविकल ७, अर्थव्यञ्जनविकल ८, इत्यष्टौ दोषाः ।