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उपासकाध्ययन
३३१ संयमः' संयतैः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम् ॥२४॥ अस्यायमर्थः-कषन्ति संतापयन्ति दुर्गतिसंगसंपादनेनात्मानमिति कषायाः क्रोधादयः । अथवा यथा विशुद्धस्य वस्तुनो नैयग्रोधादयः कषायाः कालुष्यकारिणः, तथा निर्मलस्यात्मनो मलिनत्वहेतुत्वात्कषाया इव कषायाः। तत्र स्वपरापराधाभ्यामात्मेतरयोरपायोऽपायानुष्ठानमशुभपरिणामजननंवा क्रोधः। विद्याविज्ञानेश्वर्यादिभिः पूज्यपूजातिक्रमहेतुरहंकारो युक्तिदर्शनेऽपि दुराग्रहापरित्यागो वा मानः । मनोवाक्कायक्रियाणामयाथातथ्यात्परवञ्चनाभिप्रायेण प्रवृत्तिः ख्यातिपूजालाभाभिनिवेशेन वा माया। चेतनाचेतनेषु वस्तुषु चित्तस्य महान्ममेदं भावस्तदभिवृद्धिविनाशयोमहान्सन्तोषो असन्तोषो वा लोभः।
सम्यक्त्वं घ्नन्त्यनन्तानुबन्धिनस्ते कषायकाः।
और कायकी प्रवृत्तिका त्याग तथा व्रतोंका पालन किया जाता है उसे संयमी पुरुष संयम कहते हैं ॥ ९२४ ॥
इसका खुलासा इस प्रकार है
जो आत्माको दुर्गतियोंमें ले जाकर कष्ट दें उन्हें कषाय कहते हैं । अथवा जैसे वटवृक्ष वगैरहका कसैला रस साफ वस्तुको भी काला कर देता है वैसे ही जो निर्मल आत्माको मलिन करनेमें कारण हो उसे कसैले रसके समान होनेसे कषाय कहते हैं। वे कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ ।
अपनी या दूसरोंकी गलतीसे अपना या दूसरोंका अनिष्ट होना या अनिष्ट करना अथवा बुरे भावोंका उत्पन्न होना क्रोध है । विद्या, ज्ञान या ऐश्वर्य वगैरहके घमंडमें आकर पूज्य पुरुषोंका आदर-सत्कार नहीं करना अथवा युक्ति देनेपर भी अपने दुराग्रहको नहीं छोड़ना मान है । दूसरोंको ठगनेके अभिप्रायसे अथवा ख्याति, आदर-सत्कार या धनलाभ वगैरहके अभिप्रायसे मन, वचन
और कायकी मिथ्याप्रवृत्ति करना अर्थात् सोचना कुछ, कहना कुछ और करना कुछ, इसे माया कहते हैं । चेतन स्त्री-पुत्रादिकमें और अचेतन जमीन-जायदाद वगैरहमें 'यह मेरे हैं' इस प्रकारकी जो अत्यन्त आसक्ति होती है अथवा इन वस्तुओंकी वृद्धि होनेपर जो महान् संतोष या इनकी हानि होनेपर जो महान् असन्तोष होता है वह लोभ है।
इस प्रकार ये चार कषाय हैं। इन चारों में से प्रत्येककी चार-चार अवस्थाएँ होती हैं-अनन्तानुबन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, अपत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें से जो
१. "वय समिदि-कसायाणं दंडाणं इंदियाण पंचण्हं । धारणपालणणिग्गहचायजओ संजमो भणिओ ॥१२७॥"-प्रा०पञ्चसंग्रह १।२. "क्रोधादिपरिणामः कषति हिनस्त्यात्मानं कुगतिप्रापणादिति कषायः ।....
"अथवा यथा कषायो नयग्रोधादिः श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मनः कर्मश्लेषहेतुत्वात् कषाय इव कषाय इत्युच्यते ।"-तत्त्वार्थवार्तिक पृ० ५०८ । ३. "तदभिवृदयाशयो वा महानसंतोषः क्षोभो वा लोभः"-धर्मर. पृ० १४१ । ४. "कपायाः क्रोधमानमायालोभाः । तेषां चतस्रोऽवस्थाः अनन्तानुबन्धिनोऽप्रत्याख्यानावरणा: प्रत्याख्यानावरणाः संज्वलनाश्चेति । अनन्तसंसारकारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तं तदनुबन्धिनोऽनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः । यद्दयाद्देशविरति संयमासंयमाख्यामल्पामपि कर्तुं न शक्रोति, ते देशप्रत्याख्यानमावृण्वन्तोऽप्रत्याख्यानावरणा: क्रोधमानमायालोभाः। यदुदयाद्विरतिं कृत्स्नां संयमाख्यां न शक्नोति कर्तुं ते कृत्स्नं प्रत्याख्यान