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सोमदेव विरचित [कल्प ४४, श्लो० ८७०तत्वे पुमान्मनः पुंसि मनस्यक्षकदम्बकम् ।। यस्य युक्तं स योगी स्यान्न परेच्छादुरीहितः॥८७०॥ कामः क्रोधो मदो माया लोभश्चेत्यग्निपश्चकम् ।। येनेदं साधितं स स्यात्कृती पश्चाग्निसाधकः ॥८७१।। बानं ब्रह्म दया ब्रह्म ब्रह्म कामविनिग्रहः । सम्यगत्र वसन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः ।।८७२।। शान्तियोषिति यो सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः । स गृहस्थो भवेन्ननं मनोदैवतसाधकः ॥८७३॥ प्राम्यमर्थ बहिश्चान्तर्यः परित्यज्य संयमी। वानप्रस्थः स वियोन वनस्थः कटम्बवान् ॥८७४॥ संसाराग्निशिबाच्छेदो येन ज्ञानासिनो कृतः।। तं शिखाच्छेदिनं प्राहुन तु मुण्डितमस्तकम् ॥८७५॥ कर्मात्मनोविवेक्ता यः क्षीरनीरसमानयोः।
जिसका आत्मा तत्त्वमें लीन है, मन आत्मामें लीन है और इन्द्रियाँ मनमें लीन हैं उसे योगी कहते हैं । अर्थात् जिसकी इन्द्रियाँ मनमें, मन आत्मामें और आत्मा तत्त्वमें लीन है वह योगी है । जो दूसरी वस्तुओंकी चाहरूपी दुष्ट संकल्पसे युक्त है वह योगी नहीं है ।। ८७० ।।
____ काम, क्रोध, मद, माया और लोभ ये पाँच अग्नियाँ हैं । जो इन पाँचों अग्नियोंको अपने वशमें कर लेता है उसे पञ्चाग्निका साधक कहते हैं। अर्थात् वैदिक साहित्यमें पाँच अग्नियोंकी उपासना करनेवालेको पञ्चाग्निसाधक कहते हैं। किन्तु ग्रन्थकारका कहना है कि सच्ची अग्नि तो काम, क्रोधादिक हैं जो रात-दिन आत्माको जलाती हैं । उन्हींका साधक पञ्चाग्निका साधक है। बाह्य अग्नियोंकी उपासनावाला नहीं ॥ ८७१ ।।
ज्ञानको ब्रह्म कहते हैं । दयाको ब्रह्म कहते हैं। कामको वशमें करनेको ब्रह्म कहते हैं । जो आत्मा अच्छी रीतिसे ज्ञानको आराधना करता है या दयाका पालन करता है अथवा कामको जीत लेता है वही ब्रह्मचारी है ॥ ८७२ ॥
जो क्षमारूपी स्त्रीमें आसक्त है, सम्यग्ज्ञानरूपी अतिथिका प्यारा है और मनरूपी देवताकी साधना करता है वही सच्चा गृहस्थ है । अर्थात् जो क्षमाशील है, ज्ञानी है और मनोजयी है वही वास्तवमें गृहस्थ है ।। ८७३ ॥
जो अन्दरसे और बाहरसे अश्लील बातों को छोड़कर संयम धारण करता है उसे वानप्रस्थ जानना चाहिए । जो कुटुम्बको लेकर जंगलमें जा बसता है वह वानप्रस्थ नहीं है ॥८७४॥
जिसने ज्ञानरूपी तलवारके द्वारा संसाररूपी अग्निकी शिखा यानी लपटोंको काट डाला उसे शिखाछेदी कहते हैं, सिर घुटानेवालेको नहीं ॥ ८७५ ॥
___ संसार अवस्थामें कर्म और आत्मा दूध और पानीकी तरह मिले हुए हैं । जो दूध और
१. "उदरे गार्हपत्याग्निमध्यदेशे तु दक्षिणः । आस्य आहवनोऽग्निश्च सत्यः पर्वा च मूर्धनि। यः पञ्चाग्नीनिभान् वेद आहिताग्निः स उच्यते ।"-गरुडपुराण । २. चरनात्मा इत्यपि पाठः ।