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सोमदेव विरचित [कल्प ४५, श्लो० ८६१तरुदलमिव परिपक्वं स्नेह विहीनं प्रदीपमिव देहम् । स्वयमेव विनाशोन्मुखमवबुध्य करोतु विधिमन्त्यम् ॥८६१॥ 'गहनं न शरीरस्य हि विसर्जनं किं तु गहनमिह वृत्तम् । तन्न स्थास्नु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिदमाहुः ॥८६२॥ प्रतिदिवसं विजहद्बलमुज्झदभुक्तिं त्यजत्प्रतीकारम् । वपुरेव नृणां निगिति चरमचरित्रोदयं समयम् ॥८६३॥
सविधा पापकृतेरिव [यापकृतिरिव जनिताखिलकायकम्पनातका । वह उद्दिष्ट भोजन करता है क्योंकि दाता उसके उद्देश्यसे भोजन तैयार करता है । इसलिए उसकी भिक्षा समुद्देश्या होनी चाहिए। वह अनुमति-त्यागी होता है अतः भोजनके विषयमें किसी प्रकारकी अनुमति नहीं दे सकता। किन्तु नौवीं प्रतिमा तकके धारी भोजनके विषयमें अनुमति दे सकते हैं, अतः उनकी भिक्षा अनुमान्या होनी चाहिए। ग्रन्थकारने भिक्षाके भेदोंका जो क्रम रखा है उससे भी यही ध्वनित होता है कि प्रारम्भिक प्रतिमावाले अनुमान्या भिक्षा करते हैं, दसवीं प्रतिमावाले समुद्देश्या और अन्तिम प्रतिमावाले त्रिशुद्धा भिक्षा करते हैं, तथा साधु भ्रामरीभिक्षा करते हैं। हमारी दृष्टिसे तो छठी प्रतिमा तकके लिए भिक्षा भोजनका व्यवहार ही उचित नहीं है । वे तो गृही होते हैं।
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें, मुनिके नामोंकी व्युत्पत्ति बतलानेवाला चौवालीसवाँ कल्प समाप्त हुश्रा
[अब समाधिमरणकी विधि बतलाते हैं-] ___ वृक्षके पके हुए पत्तेकी तरह या तेलरहित दीपककी तरह शरीरको स्वयं ही विनाशोन्मुख जानकर अन्तिम विधि ( समाधिमरण) करना चाहिए ॥ ८९१ ॥ किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि शरीरको त्याग देना कठिन नहीं है किन्तु उसमें संयमका धारण करना कठिन है। अतः यदि शरीर ठहरने योग्य हो तो उसे नष्ट नहीं कर डालना चाहिए और यदि वह नष्ट होता हो तो उसका रंज नहीं करना चाहिए ।। ८९२ ॥
[ यह कहा जा सकता है कि यह हमें कैसे मालूम हो कि समाधिमरणका समय आ गया है ? इसका उत्तर ग्रन्थकार स्वयं देते हैं-]
जब शरीरकी शक्ति प्रतिदिन घटने लगे, खाना-पीना छूट जाये और कोई उपाय कारगर न हो तो स्वयं शरीर ही मनुष्योंको यह बतला देता है कि अब समाधिमरण करनेका समय आ गया है ॥ ८९३ ॥
जब सन्निकटवर्ती अपकारकी तरह समस्त शरीरमें कँपकँपी पैदा करनेवाला बुढ़ापा
१. "गहनं न तनोनिं पुंसः किन्त्वत्र संयमः । योगानुवृत्तावृत्य तदात्माऽत्मनि युज्यताम्" ॥२४॥ -सागारधर्मा० ८ ०। २. "न धर्मसाधनमिति स्थास्नु नाश्यं वपुर्बुधः । न च केनाऽपि नो रक्ष्यमिति शोच्य विनश्वरम्" ।।५।।- सागारधर्मा०, अ०, ८। ३. 'शोच्यमित्याहु.'-सागारधर्मामृत टीका ८.५ में उद्धृत । ४. निगदति-सागा. टी. ८-१२ में उद्धृत । ५. समीपवर्तिनी अपकृतिरिव या सविधा-धर्मरत्ना० प०१३२।