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सोमदेव विरचित [करुप ४४, श्लोर भावपुष्पैर्यजेहेवं प्रतपुष्पैर्वपुर्रहम् । . समापुष्पैर्मनो वहिं यः स यष्टा सतां मतः ॥८८२॥ षोडशानामुदारात्मा यः प्रभु वनविजाम् । सोऽध्वर्युरिह बोद्धव्यः शिवशर्माध्वरोद्धरः ॥८८३॥ विवेकं वेदयेदुधैर्यः शरीरशरीरिणोः। स प्रीत्यै विदुषां वेदो नाखिलक्षयकारणम् ॥८॥ जातिर्जरा मृतिः पुसां त्रयी संसृतिकारणम् । एषा यी यतस्त्रय्याः क्षीयते सा त्रयी मता ॥८८५॥
अहिंसः सद्बतो शानी निरीहो निष्परिग्रहः । भावरूपी पुष्पोंसे देवताकी पूजा करता है, व्रतरूपी पुष्पोंसे शरीररूपी घरकी पूजा करता है
और क्षमारूपी पुष्पोंसे मनरूपी अग्निकी पूजा करता है उसे सज्जन पुरुष यष्टा अर्थात् यज्ञ करनेवाला कहते हैं । जो महात्मा सोलह कारण भावनारूपी यज्ञ करानेवाले ऋत्विजोंका स्वामी ह, मोक्ष-सुखरूपी यज्ञके उद्धारक उस पुरुषको अध्वर्यु जानना चाहिए ।।८८२-८८३॥ - भावार्थ-दीक्षित, श्रोत्रिय, होता, यष्टा, अध्वर्यु ये सब वैदिक यज्ञसे सम्बन्ध रखते हैं । वेदोंमें मन्त्रोंके द्वारा जो हवन किया जाता है उसे यज्ञ कहते हैं । पुराने युगमें वैदिक यज्ञोंका बड़ा चलन था और उनमें बकरे वगैरहका बलिदान किया जाता था तथा उनके अनेक भेद थे । जो सोमयज्ञ करता था उसे दीक्षित कहते थे। इस यज्ञमें सोमरस पिया जाता था तथा बलिदान होता था। जो वेदका ज्ञाता होता था उसे श्रोत्रिय कहते थे । यह बाह्य शुद्धिका बड़ा ध्यान रखता था । जो होम करता था उसे होता कहते थे । जो यज्ञका प्रधान होता था सबको अपने-अपने कामकी आज्ञा देता था उसे यष्टा या यजमान कहते थे । जो यजुर्वेदका ज्ञाता होता था उसे अध्वर्यु कहते थे। ये सब क्रियाकाण्डी होते थे। वैदिक क्रियाकाण्डमें बाह्य आचरण ही सब कुछ है । अतः ग्रन्थकारने आत्म-यज्ञको ही सच्चा यज्ञ बतलाकर जो उसीको करता है उसे ही दीक्षित आदि नामोंसे पुकारनेके लिए कहा है।
जो आत्मा और शरीरके भेदको जोरदार शब्दोंमें बतलाता है वही सच्चा वेद है और विद्वान् लोग उससे ही प्रेम करते हैं । किन्तु जो सब पशुओंके विनाशका कारण है वह वेद नहीं है ॥ ८८४ ॥
___ जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु ये तीनों संसारके कारण हैं। इस त्रयी अर्थात् तीनोंका जिस त्रयीसे नाश हो वही त्रयी है । आशय यह है कि ऋक्वेद, सामवेद और यजुर्वेदको त्रयी कहते हैं। किन्तु ग्रन्थकारका कहना है जो संसारके कारण जीवन, मृत्यु और बुढ़ापेको नष्ट कर दे, जिससे संसारमें न जन्म लेना पड़े और न मृत्युका दुःख उठाना पड़े वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ही सच्ची त्रयी है ॥ ८८५ ॥
जो अहिंसक है, समीचीन व्रतोंका पालन करता है, ज्ञानी है, सांसारिक चाहसे दूर है और १. षोडशा भावना एव ऋत्विजः, तेषां मध्येऽध्वर्युः यजुर्वेदज्ञाता मुख्यः ।