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सोमदेव विरचित [कल्प ४५, श्लो० ८६९स्नेहं विहाय' बन्धुषु मोह विमवेषु कलुषतामहिते। गणिनि च निवेच निखिलं दुरीहितं तदनु भजतु विधिमुचितम् ॥१६॥ अशनं क्रमेण हेयं स्निग्धं पानं ततः खरं चैव । तदनु च सर्वनिवृत्ति कुर्याद्गुरुपञ्चकस्मृतौ निरतः ॥६००॥ कदलीघातवदायुः कृतिनां सकृदेव विरतिमुपयाति । तत्र पुन विधिर्यईवे क्रमविधिर्नास्ति ॥१०॥ सूरौ प्रवेवनकुशले साधुजने यस्नकर्मणि प्रवणे । वितेच समाधिरते किमिहासाध्यं यतेरस्ति ॥६०२॥
___ कुटुम्बियोंसे स्नेह, सम्पत्तिसे मोह और जिन्होंने अपना बुरा किया है उनके प्रति कलुषपनेको छोड़कर आचार्यसे अपने सब अपराधोंको कह दे, और उसके बाद समाधिमरणके योग्य विधिका पालन करे ॥ ८९९ ॥
धीरे-धीरे भोजनको छोड़ दे और दूध, मठा वगैरह रख ले। फिर उन्हें भी छोड़कर गर्म जल रख ले। उसके बाद पञ्च नमस्कार मन्त्रके स्मरणमें लीन होकर सब कुछ छोड़ दे ॥ ९०० ॥ यदि किसी पुण्यशाली पुरुषकी आयु कटे हुए केलेकी तरह एक साथ ही समाप्त होती हो तो वहाँ समाधिमरणकी यह विधि नहीं है, क्योंकि दैववश अचानक मरण उपस्थित होनेपर क्रमिक विधि नहीं बन सकती ॥ ९०१॥
यदि समाधिमरण करानेवाले आचार्य आगममें कुशल हों और साधुसंघ प्रयत्न करने में कुशल हो तथा समाधिमरण करनेवालेका मन ध्यानमें लगा रहे तो फिर कुछ भी असाध्य नहीं है ॥ ९०२॥
भावार्थ-समाधिमरणके इच्छुक मनुष्यको किसी पवित्र तीर्थ-स्थानपर चले जाना चाहिए, यदि ऐसा करना शक्य न हो तो जिनालय या मुनिसंघ वगैरहमें चले जाना चाहिए। यदि तीर्थक्षेत्रके लिए कोई घरसे चले और रास्तेमें ही उसका मरण हो जाये तो उसका मरण समाधिमरण ही कहा जाता है क्योंकि समाधिमरणकी भावना भी फलदायक है । जानेसे पहले सबसे अपने अपराधोंकी क्षमा माँगे और जिसने अपना अपराध किया हो उसे क्षमा कर दे । फिर समाधिमरणके योग्य स्थानपर पहुँचकर आचार्यके सामने अपने सब दोष निवेदन कर दे और
१. "स्नेहं विहाय......"विधिमन्त्यम् ।" -धर्मरत्नाकर प० १३३ । विधाय अ०, ज०, मु० । “स्नेहं वैरं सङ्गं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियर्वचनैः ॥१२४॥ आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायी निश्शेषम् ॥१२५॥"--रत्नकरण्ड श्रा० । २. "आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्धयेत् पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत् क्रमशः ॥१२७॥ खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पञ्चनमस्कारमनास्त त्यजेत् सर्वयत्नेन ।।१२८॥"
-रत्नकर० । ३. -बदायुषि अ०, ज०, मु० । “भुशापवर्तकवशात् कदलीघातवत् सकृत् । विरमत्यायुषि प्रायमविचारं समाचरेत् ॥११॥"-सागारधर्मा०, अ० ८ । ४. नेव-धर्मरत्ना० ५० १३३ । ५. “समाधिसाधनचणे गणेशे च गणे च न । दुर्दैवेनापि सुकरः प्रत्यूहो भावितास्मनः ॥२६॥"--सागारधर्मामृत ८ अ० । ६. -ध्यं समस्तीति-धर्मरत्ना० ५० १३३ ।