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-८८१] उपासकाम्ययन
३११ भवेत्परमहंसोऽसौ नाम्निवत्सर्वभक्षकः ॥८६॥ शानमनो वपुर्व तैर्नियमैरिन्द्रियाणि च । नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्वी न वेषवान् ॥८७७॥ पञ्चेन्द्रियप्रवृत्त्याच्यास्तिथयः पञ्च कीर्तिताः। संसौराश्रयहेतुत्वात्ताभिर्मुक्तोऽतिथिर्भवेत् ॥८७८॥ श्रद्रोहः सर्वसत्वेषु यो यस्य दिने दिने। स पुमान्दीक्षितात्मा स्यान्नत्वजादियमाशयः ।।८७६।। दुष्कर्मदुर्जनास्पर्शी सर्वसत्त्वहिताशयः । स श्रोत्रियो भवेत्सत्यं न तु यो बाह्यशौचवान् ।।८८०॥ अध्यात्माग्नौ दयामन्त्रैः सम्यकर्मसमिश्चयम् ।
यो जुहोति स होतो स्यान्न बाह्याग्निसमेधकः ॥८॥ पानीकी तरह कर्म और आत्माको जुदा-जुदा कर देता है वही परमहंस साधु है। जो आगकी तरह सर्वभक्षी है, जो मिल जाये वही खा लेता है वह परमहंस नहीं है ॥ ८७६ ॥ जिसका मन ज्ञानसे, शरीर चारित्रसे और इन्द्रियाँ नियमोंसे सदा प्रदीप्त रहती हैं वही तपस्वी है, जिसने कोरा वेष बना रखा है वह तपस्वी नहीं है ॥ ८७७ ॥
पाँचों इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयमें लगना ही पाँच तिथियाँ हैं । चूँकि इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयमें प्रवृत्ति करना संसारका कारण है। अतः जो उनसे मुक्त हो गया उसे अतिथि कहते हैं ॥ ८७८ ॥
भावार्थ-भोजनके लिए आनेवाले साधु अतिथि कहे जाते हैं । अतिथि शब्दका एक अर्थ यह भी होता है कि जिसके आनेकी कोई तिथि ( मिति ) निश्चित नहीं है वह अतिथि है। साधु आहारके लिए किस दिन आ जायेंगे यह पहलेसे निश्चित तो होता नहीं तथा साधुओंके अष्टमी आदिका विचार भी नहीं होता। अतः वे अतिथि कहलाते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि अतिथि शब्दका यह अर्थ तो लौकिक है । वास्तवमें तो पाँचों इन्द्रियाँ ही द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी रूप पाँच तिथियाँ हैं और जो उनसे मुक्त हो गया, जिसने पाँचों इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लिया वही वास्तवमें अतिथि है।
जो प्रतिदिन समस्त प्राणियोंमें मैत्रीरूपी यज्ञका आचरण करता है वह मनुष्य दीक्षित कहलाता है। जो बकरे वगैरहका बलिदान करता है वह दीक्षित नहीं है ॥ ८७९ ॥
.....जो बुरे कामोंको नहीं करता और न बुरे मनुष्योंकी संगति ही करता है तथा सब प्राणियोंका हित चाहता है वह वास्तवमें श्रोत्रिय है, जो केवल बाह्य शुद्धि पालता है वह श्रोत्रिय नहीं है ॥ ८८० ॥ जो आत्मारूपी अग्निमें दयारूपी मन्त्रोंके द्वारा कर्मरूपी काष्ठ-समहसे हवन करता है वह होता है; जो बाह्य अग्निमें हवन करता है वह होता नहीं है ॥ ८८१ ॥ जो
१. प्रवृत्ता-अ०, जा, मु० । २.संसारे श्रेय-अ०, ज०, मु० । ३."स सोमवति दीक्षितः" इत्यमरः । ४. छागादीनां घातकः । ५. होमकर्ता।