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-८६१] उपासकाभ्ययन
३१७ तं निर्मममुशन्तीह केवलात्मपरिच्छदम् ॥८६४॥ यः कर्मद्वितयातीतस्तं मुमुचु प्रचक्षाले। पाशैलोहस्य हेलो वा यो बद्धो बद्ध एव सः॥८६॥ निर्ममो निरहंकारो निर्मानमदमत्सरः। निन्दायां संस्तवे चैव समधीः शंसितव्रतः।।८६६।। योऽवगम्य वाम्नायं तत्त्वं तरवैकभावनः । वाचंयमः स विज्ञ यो न मौनी पशुवन्नरः ।।८६७॥ श्रुते व्रते प्रसंख्याने संयमे नियमे यमे। . यस्योच्चैः सर्वदा चेतः सोऽनूचानः प्रकीर्तितः ॥८६८।। योऽस्तेिनेचविश्वस्तःशाश्वते पथि निष्ठितः ।
समस्तसत्त्वविश्वास्यः सोऽनाश्वानिह गीयते ॥६६॥ करते, केवल धार्मिक काम करते हैं। किन्तु उन्हें भी किसी लौकिक फलकी इच्छासे नहीं करते, अपना कर्तव्य समझकर करते हैं। और उनके पास अपनी आत्माके सिवा और कुछ रहता नहीं है, शरीर है किन्तु उससे भी उन्हें कोई ममता नहीं रहती, इसीलिए उन्हें 'निर्मम' कहते हैं ।। ८६४ ॥ जो पुण्य और पाप दोनोंसे रहित है उसे मुमुक्षु कहते हैं। क्योंकि बन्धन लोहेके हों या सोनेके हों, जो उनसे बँधा है वह तो बद्ध ही है। अर्थात् पुण्यकर्म सोनेके बन्धन हैं और पापकर्म लोहेके बन्धन हैं। दोनों ही जीवको संसारमें बाँधकर रखते हैं । अतः जो पापकर्मको छोड़कर पुण्यकर्ममें लगा है वह भी कर्मबन्ध करता है, किन्तु जो पुण्य और पाप दोनोंको छोड़कर शुद्धोपयोगमें संलीन है वही मुमुक्षु है ।। ८६५ ॥
जो ममतारहित है, अहंकाररहित है, मान, मस्ती और डाहसे रहित है तथा निन्दा और स्तुतिमें समान बुद्धि रखता हैं [ वैदिक धर्ममें यह भी साधुकी एक संज्ञा है ] ।। ८६६ ॥
जो आम्नायके अनुसार तत्त्वको जानकर उसीका एकमात्र ध्यान करता है उसे मौनी जानना चाहिए । जो पशुकी तरह केवल बोलता नहीं है वह मौनी नहीं है ।। ८६७ ॥
जिसका मन श्रतमें, व्रतमें, ध्यानमें, संयममें तथा यम और नियममें संलग्न रहता है उसे अनूचान कहते हैं । अर्थात् वैदिक धर्ममें साग वेदके पूर्ण विद्वान्को अनूचान कहते हैं । किन्तु ग्रन्थकारका कहना है कि जो श्रुत, व्रत-नियमादिकमें रत है वही अनूचान है । और इसलिए जैनमुनि ही 'अनूचान' कहे जा सकते हैं ।। ८६८ ।।
...--जो इन्द्रियरूपी चोरोंका विश्वास नहीं करता तथा स्थायी मार्गपर दृढ़ रहता है और सब प्राणी जिसका विश्वास करते हैं अर्थात् जो किसीको भी कष्ट नहीं पहुँचाता उसे अनाश्वान् कहते हैं । अर्थात् वैदिक धर्ममें जो भोजन न करे उसे अनाश्वान् कहा जाता है । किन्तु ग्रन्थकार कहते हैं कि जिसमें उक्त बातें हों उसीको अनाश्वान् कहना चाहिए ।। ८६६ ॥
१. ययान्यायं अ., ज० । २. ध्याने । ३."अनूचानो विनीते स्यात् सांगवेदविचक्षणे"-इति मेदिनी । ४. इन्द्रियचौरेषु ।