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उपासकाध्ययन अध्यधिवतमारोहेत्पूर्वपूर्ववतस्थितः। सर्वत्रापि समाः प्रोक्ता मानदर्शनभावनाः ।।८५५।। षडत्र गृहिणो क्षेयामयः स्युर्ब्रह्मचारिणः ।
भिक्षुको द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ।।८५६।। काटकर और उसमें नमक वगैरह मिलाकर पहले उन्हें अचित्त कर लेता है तब खाता है। ऐसा करनेसे उनका इन्द्रियमदकारक अंश, जिसे विटामिन या पोषकतत्त्व कहते हैं, नष्ट हो जाता है। फिर उसके खानेसे जीवन शक्ति तो उनसे मिलती है किन्तु मादकता नहीं आने पाती और तब वह भोजन विकारी नहीं होता । इस तरह ब्रह्मचर्यके उपयुक्त आहारका अभ्यस्त होनेपर वह पहले दिनमें ब्रह्मचर्य पालन करनेका नियम लेता है और जब उसमें पक्का हो जाता है तो रात्रिमें भी ब्रह्मचारी रहनेकी प्रतिज्ञा ले लेता है । ब्रह्मचर्य ले लेनेके बाद सन्तानोत्पत्ति रुक जाती है, इसलिए नयी सन्तानका उत्तरदायित्व नहीं रहता। जब पहली सन्तान समझदार हो जाती है और घरका कार्यव्यवहार सम्हाल लेती है तो गृहस्थ अपना कार्य-रोजगार अपने लड़कोंपर छोड़कर स्वयं उधरसे छुट्टी ले लेता है । जब लड़के अच्छी तरह रोजगार सम्हाल लेते हैं और अपने काममें चतुर प्रमाणित हो जाते हैं तो गृहस्थ अपनी कुल सम्पत्ति उनको सौंप कर निर्द्वन्द्व हो जाता है। मगर उन्हें सलाह-मशविरा देता रहता है। जब देख लेता है कि अब लड़के विना मेरी सलाहके भी सब काम करनेमें समर्थ हो गये हैं तो फिर उन्हें सलाह देना भी बन्द कर देता है । इस तरह अपने कौटुम्बिक उत्तरदायित्वसे मुक्त होकर अब गृहस्थ आत्मसाधनामें अपना विशेष ध्यान लगाता है और उसके लिए वह सब घरवालोंसे पूछ-ताछकर घर छोड़ देता है और साधुजनोंके सत्संगमें रहकर साधुओंकी ही तरह भिक्षावृत्तिसे भोजन करने लगता है। उसके बाद यदि वह शक्ति देखता है तो साधु बन जाता है। इस तरह इस क्रमिक त्यागसे प्रत्येक गृहस्थका इहलौकिक
और पारलौकिक जीवन सुख और शान्तिसे समृद्ध होता है। ग्रन्थकारने पाँचवीं सचित्त त्यागप्रतिमाके स्थानमें आठवीं आरम्भत्याग-प्रतिमाको गिनाया है और उसके स्थानमें पाँचवींको । ऐसा व्यतिक्रम अन्य किसी भी श्रावकाचारमें नहीं पाया जाता और न क्रमिक त्यागकी दृष्टिसे ही ठीक ऊँचता है । इसीसे हमने उक्त दोनों श्लोकोंका अर्थ परम्पराके अनुसार ही लिखा है ।
प्रतिमा धारणका क्रम तथा उनके धारकोंकी संज्ञाएँ जब गृहस्थ पहले-पहलेकी प्रतिमा पक्का हो जाये तब आगे-आगेकी प्रतिमा ले । 'आगेको दौड़ पीछेको छोड़' वाली कहावत चरितार्थ न करे । तथा सभी व्रतोंमें सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन भावनाका होना जरूरी है । उसके बिना त्याग त्याग नहीं है ।। ८५५ ।। इन ग्यारह प्रतिमाओंमें-से पहलेको छह प्रतिमाके धारक गृहस्थ कहे जाते हैं। सातवी, आठवीं और नौवीं प्रतिमाके धारक ब्रह्मचारी कहे जाते हैं तथा अन्तिम दो प्रतिमावाले भिक्षु कहे जाते हैं और उन सबसे ऊपर मुनि या साधु होता है ।। ८५६ ॥
१. अवधि-अ० ज० मु० । दर्शनप्रतिमापूर्व के प्रतिमामाराधयेत् इत्यर्थः । २. प्रथमप्रतिमादिषु क्रमेण रत्नत्रयभावनाः सदशाः ।