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उपालकान्यवन स्वरूपं रचना शुधिभुषार्थश्च समासतः।
प्रत्येकमागमस्यैतद्वैविध्यं प्रतिपद्यते ॥५०॥ तत्र स्वरूपं च द्विविधम्-अक्षरम् , अनतरं च । रचना द्विविधा-गधम् , पचं च । शुद्धिर्द्विविधा-प्रमादप्रयोगविरहः, अर्थव्यञ्जनविकलतापरिहारश्च । भूषा द्विविधावागलंकारः, अर्थालंकारश्च । अर्थो द्विविधः-चेतनोऽचेतनश्च जातिय॑क्तिश्चेति वा ।
सार्धं संचित्तनिक्षिप्तवृत्ताभ्यां दानहानये। . अन्योपदेशमात्सर्यकालातिक्रमणक्रियाः ॥५१॥ . नतेगोत्रं श्रियो दानादुपास्तेः सर्वसेव्यताम् ।
भक्तेः कीर्तिमवाप्नोति स्वयं दाता यतीन्मजन् ।।८५२॥ इत्युपासकाध्ययने दानविधिर्नाम त्रिचत्वारिंशत्तमः कल्पः ।
प्रत्येक शास्त्रमें संक्षेपसे इतनी बातें होती हैं- स्वरूप, रचना, शुद्धि, अलंकार और वर्णित विषय । ये प्रत्येक दो-दो प्रकारके होते हैं ।। ८५० ॥ स्वरूप दो प्रकारका होता है-अक्षररूप
और अनक्षररूप। रचना दो प्रकारकी होती है गद्यरूप और पद्यरूप। शुद्धि दो प्रकारकी होती है-एक तो प्रमादसे कोई प्रयोग न किया गया हो, दूसरे न उसमें कोई अर्थ छूटा हो और न कोई शब्द छूटा हो । अलंकार दो तरहके होते हैं-एक शब्दालंकार और दूसरा अर्थालंकार । वर्णित विषय दो प्रकारका होता है चेतन और अचेतन या जाति और व्यक्ति ।
मुनिदानके अतिचार सचित्त पत्ते वगैरहमें आहारको रखना, सचित्त पत्ते वगैरहसे आहारको ढाँकना, यह दाता है और यह आहार भी इसीका है इस प्रकार कहकर दान देना, दान देते हुए भी आदरपूर्वक न देना या अन्य दाताओंसे ईर्ष्या करना और साधुओंके भिक्षाके समयको टालकर उससे पहले या उसके बादमें भोजन करना ये पाँच बातें मुनिदान व्रतमें दोष लगानेवाली हैं। अतः श्रावकको इन्हें नहीं करना चाहिए ।। ८५१ ॥ जो दाता स्वयं यतियोंको दान देता है उसे मुनिको नमस्कार करनेसे उच्च गोत्र मिलता है, दान देनेसे लक्ष्मी मिलती है, उनकी उपासना करनेसे सब लोग उसकी सेवा करते हैं, और उनकी भक्ति करनेसे संसारमें यश होता है ।। ८५२ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें 'दानविधि' नामका तैतालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
१. यत्र जीवानां व्याख्या क्रियते सोऽर्थश्चेतनः। यत्र पर्वतादीनां व्याख्या सोऽर्थोऽचेतनः । २. जातिलिङ्गम् । व्यक्तिरेकवचन द्विवचनबहवचनम । ३. "सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥"-तत्त्वार्थसूत्र ७-३६ । “हरितपिधाननिषाने ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि । वैयावृत्यस्यैते व्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥१२१॥"-रत्नकरण्डश्रा० । “परदातृव्यपदेशः सचित्तनिक्षेपतत्पिधाने च । कालस्यातिक्रमण मात्सर्य चेत्यतिधिदाने ॥१९४॥"-पुरुषार्थसि। अमित श्रा० ७-१४ । ४. "उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो दानादपासनात् पूजा । भवतेः सुन्दररूपं स्तवनात् कीर्तिस्तपोनिधिषु ॥११५।।"-रत्नकरण्डश्रा ।
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