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सोमदेव विरचित [कल्प ४३, श्लो० ८४६ शब्दतियन गीः शुद्धा यस्य शुद्धा न धीनयः।
स परप्रत्ययाक्लिश्यन्भवेदन्धसमः पुमान् ॥८४६॥ युग बीत जानेपर भी ज्ञानके एक अंशमें भी कुशल नहीं होता ॥८४८॥
भावार्थ-ज्ञानका फल आत्मकल्याण है और ऐसा ज्ञान वीतराग हितोपदेशी गुरुओंके द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोंसे ही प्राप्त हो सकता है। यों तो संसारमें पुस्तकोंकी कमी नहीं है, किन्तु उनसे बाह्य बातोंका तो विस्तारसे ज्ञान होता है परन्तु मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वरूप है आदि बातोंका कुछ भी ज्ञान नहीं होता। और सब कुछ जानकर भी जिससे अपना ज्ञान नहीं होता वह अपने किस कामका । अतः शास्त्रोंके द्वारा आत्मस्वरूपका ज्ञान पहले करना चाहिए । बहुत-से लोग अपनेको तो जानते नहीं और रात-दिन बाह्य क्रियाकाण्डका कष्ट उठाते रहते हैं। ऐसे आत्मज्ञान-विमुख लोगोंका बाह्य क्रियाकाण्ड केवल क्लेशका कारण है। उससे वह कुछ भी लाभ नहीं उठा सकते। क्योंकि सच्चे ज्ञानके होनेपर बाह्य आचारमें तो जीवकी प्रवृत्ति स्वयं हो जाती है किन्तु बाह्य आचारमें लगे-लगे सच्चे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि जब जीवको यथार्थज्ञान हो जाता है तो उसकी प्रवृत्ति बाह्यमुखी न रहकर स्वयं अन्तर्मुखी हो जाती है और प्रवृत्तिका अन्तर्मुख हो जाना ही तो तप है। किन्तु प्रवृत्तिके बहिर्मुख रहनेसे यथार्थज्ञान नहीं हो पाता है। और यथार्थज्ञानका ही सच्चा महत्त्व है जैसा कि ऊपर बतलाया है । अतः यथार्थज्ञानकी प्राप्ति करनी चाहिए । ___ जिसकी वाणी व्याकरणके द्वारा शुद्ध नहीं हुई और बुद्धि नयोंके द्वारा शुद्ध नहीं हुई वह मनुष्य दूसरोंके विश्वासके अनुसार चलनेसे कष्ट उठाता हुआ अन्धेके समान आचरण करता है ।।८४९॥
भावार्थ-आशय यह है कि शास्त्रकी शुद्धि या कथमकी शुद्धि केवल शब्दप्रयोग वगैरहकी शुद्धतापर निर्भर नहीं है किन्तु वक्ताकी नयज्ञतापर निर्भर है । कौन बात कहाँ किस दृष्टि से कही गयी है या कहनी चाहिए, इस बातमें जो निपुण है वही यथार्थ वक्ता है और उसके द्वारा जो कुछ कहा जाता है वह शुद्ध होता है । किन्तु इस बातको न समझकर जो केवल शब्दशुद्धिके बाह्य साधन व्याकरणादिकके प्रयोगमें ही साधुत्व समझते हैं और उसी में लगे रहते हैं उनका वचनव्यवहार शुद्ध नहीं कहा जा सकता। जैसे जैन-शास्त्रोंमें संसारभावनाका स्वरूप बतलाते हुए यह कहा है कि इस संसारमें कुछ भी नित्य नहीं है सब जलके बुलबुलेकी तरह क्षणिक है। जो केवल शब्दशास्त्री है और यह नहीं समझता कि यहाँ यह कथन किस अपेक्षासे कहा गया है वह तो यही समझेगा कि जैन धर्म वस्तुको क्षणिक मानता है और इसलिए वह क्षणिकवादी है तथा ऐसा ही वह दूसरोंको समझायेगा। किन्तु नयप्रयोगका जानकार ऐसी गलती नहीं कर सकता, वह बराबर यह समझ जायेगा कि वैराग्य उत्पन्न करानेके लिए पर्यायदृष्टि से ऐसा कथन किया गया है। द्रव्यदृष्टिसे तो सभी नित्य है। अतः शुद्ध शब्द प्रयोगके लिए वक्ताको अपनी बुद्धि नयज्ञानसे भी शुद्ध करनी चाहिए।
१. व्याकरणैः। “शब्दानुशासनसमभ्यसनान्न यस्य नैतिह्यतोऽपि धिषणा न तथा नयेभ्यः । संप्रापशुद्धिमसमां स परप्रतीतेः क्लिश्यन् पुमान् भवति नेत्रविहीनतुल्यः ॥९९।।"-धर्मर० १०, १२९ ।