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सोमदेव विरचित [कल्प ४३ श्लो०८३६सौमनस्यं सदा चर्य व्याख्यातृषु पठत्सु च । श्रावासपुस्तकाहारसौकर्यादिविधानकैः ॥८३६॥ अङ्गपूर्वप्रकीर्णोक्तं सूक्तं केवलिभाषितम् ।। नश्येन्निर्मूलतः सर्वे श्रुतस्कन्धधरात्यये ॥८४०॥ प्रश्रयोत्साहनानन्दस्वाध्यायोचितवस्तुभिः । श्रुतवृद्धान्मुनीन्कुर्वञ्जायते श्रुतपारगः ॥८४१॥
श्रुतात्तत्त्वपरिक्षानं श्रुतात्समयवर्धनम् ।
श्रुतकी रक्षाके लिए श्रुतधरोंकी रक्षा आवश्यक है जो जिनशास्त्रोंका व्याख्यान करते हैं या उनको पढ़ते हैं उन्हें, रहनेको निवास स्थान, पुस्तक और भोजन आदिकी सुविधा देकर गृहस्थोंको सदा अपनी सदाशयताका परिचय देते रहना चाहिए ॥८३६॥ क्योंकि श्रुतके व्याख्याता और पाठक श्रुतसमूहके धारक हैं-उनके नष्ट हो जानेसे केवली भगवान्के द्वारा उपदिष्ट ग्यारह अंग और चौदह पूर्व रूप समस्त श्रुतज्ञान जड़से नष्ट हो जायेगा ॥८४०॥ जो आश्रय देकर, उत्साह बढ़ाकर, आराम देकर तथा स्वाध्यायके योग्य शास्त्र आदि वस्तुओंको देकर मुनियोंको शास्त्रमें निपुण बनानेका प्रयत्न करते हैं वे स्वयं श्रुतके पारगामी हो जाते हैं ॥८४१॥
भावार्थ-वास्तवमें जैनधर्म तभीतक कायम है जबतक जैनशास्त्रोंके ज्ञाता जन मौजूद हैं और लोगोंमें जैनशास्त्रोंका पठन-पाठन चालू है। क्योंकि यदि लोगोंमें-से शास्त्रज्ञान लुप्त हो गया तो वे अपने धर्म-कर्मको भी भूल बैठेंगे और धर्म-कर्मके भूल बैठनेसे वे केवल नामके जैनी रह जायेंगे और कुछ समय बाद यह भी भूल जायेंगे कि हम जैनी हैं। अतः इस बातका प्रयत्न अपने भरसक करना चाहिए कि जैनशास्त्रोंका पठन-पाठन चालू रहे । और उसके लिए उन लोगोंको बराबर साहाय्य देते रहना चाहिए जो अपना जीवन इस काममें लगाये हुए हैं। पहले समयमें तो मुनिसंघ होते थे और गृहस्थ लोग भी अपने बच्चोंको पढ़नेके लिए संघमें भेज देते थे। किन्तु अब तो विरले ही मुनि दृष्टिगोचर होते हैं और जो होते हैं उनमें भी ज्ञानका विकास बहुत कम पाया जाता है। अतः जो गृहस्थ लोग इस काममें अपने जीवनको लगाकर श्रुतकी रक्षा करते हैं, स्वयं श्रुताभ्यास करते हैं और दूसरों को कराते हैं या जो विद्यार्थी विद्यालयों या पाठशालाओंमें पढ़ते हैं उन सबको यथायोग्य साहाय्य देते रहना चाहिए और जो संस्थाएँ इसीलिए खुली हुई हैं कि जैनशास्त्रों का पठन-पाठन चालू रहे उनकी रक्षा और प्रचार हो, उन्हें भी भरपूर मदद देते रहना चाहिए।
श्रत या शास्त्रका महत्व श्रुत या शास्त्रसे ही तत्त्वोंका ज्ञान होता है और शास्त्रसे ही जिन-शासनकी वृद्धि होती
१. “आवासपुस्तकादीनां सौकर्यादिविधानतः ॥९०॥"-धर्मरत्ना०, प० १२८ । सौकार्या- अ० ज० मु०। २. "अङ्गपूर्वरचितप्रकीर्णकं वीतरागमुखपद्मनिर्गतम् । नश्यतीह सकलं सुदुर्लभं सन्ति न श्रुतधरा यदर्षयः ।। ९१ ॥ तत्प्रश्रयोत्साहनयोग्यदानानन्दप्रमोदादिमहाक्रियाभिः। कुर्वन् मुनीनागमविद्धचित्तान् स्वयं नरः स्याच्छ्रतपारगामी ।।९२।।"-धर्मरत्ना० ५० १२८ । ३. "श्रुतेन तत्त्वं पुरुषैः प्रबुध्यते, श्रुतेन वृद्धिः समयस्य जायते । भूतप्रभावं परिवर्णय जिनः श्रुतं विना सर्वमिदं विनश्यति ॥९३॥"-धर्मरत्ना०, ५० १२९।