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[ कल्प ४४, श्लो० ८५३
सोमदेव विरचित
मूल तं व्रतान्यचपर्व कर्माकृषिक्रियाः । दिवा नवविधं ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ||८५३॥ परिग्रहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । तद्धानौ च वदन्त्येतान्येकादश यथाक्रमम् ॥८५४॥
ग्यारह प्रतिमाएँ
[ अब श्रावककी ग्यारह प्रतिमाएँ बतलाते हैं- ]
सम्यग्दर्शन के साथ अष्टमूलगुणका निरतिचार पालन करना पहली प्रतिमा है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंको निरतिचार पालन करना दूसरी व्रत प्रतिमा है । नियमसे तीनों सन्ध्याओं को विधिपूर्वक सामायिक करना तीसरी सामायिक प्रतिमा है । [ ग्रन्थकारने उसके लिए अर्चा शब्दका प्रयोग किया है जिसका अर्थ पूजा होता है । उन्होंने सामायिकमें पूजनपर विशेष जोर दिया है । इसीसे अर्चा शब्दका प्रयोग किया जान पड़ता है । ] प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको नियमसे उपवास करना चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा है । खेती आदिका न करना पाँचवीं प्रतिमा है । दिनमें ब्रह्मचर्य का पालन करना छठी दिवामैथुनत्याग प्रतिमा है । मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से स्त्रीसेवनका त्याग सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। सचित्त वस्तुके खानेका त्याग करना आठवीं सचित्तत्याग प्रतिमा है । समस्त परिग्रहका त्याग देना नौवीं परिग्रहत्याग प्रतिमा है । किसी आरम्भ उद्योग या विवाहादि कार्यमें अनुमति न देकर केवल भोजन मात्रमें अनुमति देना दसवीं आरम्भत्याग प्रतिमा है और अपने भोजन में भी किसी प्रकारकी अनुमति नहीं देना ग्यारहवीं प्रतिमा है ये क्रमसे ११ प्रतिमाएँ हैं ॥ ८५३-८५४ ॥
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भावार्थ-ये श्रावक के ग्यारह दर्जे हैं, जिनपर श्रावक क्रमवार आगे-आगे बढ़ता है । सबसे प्रथम सम्यग्दर्शन और आठमूल गुणोंका होना आवश्यक है । उसके बाद बारह व्रत पालने चाहिए । फिर तीनों सन्ध्याओंको सामायिक करनी चाहिए। उसके बाद पर्वके दिन नियमसे उपवास करना चाहिए । यहाँ यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि सामायिक और प्रोषधोपवास व्रत व्रतप्रतिमा में भी किये जाते हैं किन्तु वहाँ वे अभ्यासरूपमें होते हैं और तीसरी तथा चौथी प्रतिमा में अवश्य करने होते हैं। चार प्रतिमाओं में पूर्ण अभ्यस्त हो जानेके बाद गृहस्थ ब्रह्मचर्यकी ओर अपना विशेष लक्ष देता है और उसके लिए सबसे पहले वह सचित्त फल वगैरहका भक्षण करना छोड़ देता है। हरे साम-सब्जी, पके फल वगैरहको सचित्त कहते हैं । उनके खाने से इन्द्रियमद अधिक होता है जो ब्रह्मचर्यका घातक है। अतः उन्हें सुखाकर या आगमें पकाकर या चाकूसे
१. "दंसण वय सामाइय पोसह सच्चित्त राइ भत्ती य । बंभारम्भपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविर देदे || " - चारितपाहुड २१, प्रा० पञ्चसंग्रह १ १३६ । बारस अणुवेक्खा ६९ । गो० जीवकाण्ड ४७६ । वसुनन्दिश्रा • ४ । “सद्दर्शनं व्रतोद्योतं समतां प्रोषधव्रतम् । सचित्तसेवाविरतिमहः स्त्रीसंगवर्जनम् ।। १५९ ॥ ब्रह्मचर्यमथारम्भपरिग्रहपरिच्युतिम् । तत्रानुमननत्यागं स्वोद्दिष्टपरिवर्जनम् ॥ १६० ॥ स्थानानि गृहिणां प्राहुः एकादशगणाधिपाः । " - महापुराण १० पर्व । "दर्शनिकोऽथ प्रतिकः सामयिकी प्रोषधोपवासी च । सचित्तदिवा मैथुनविरतो गृहिणोऽणुयमिषु हीनाः षट् ।। २ ।। अब्रह्मारम्भपरिग्रहविरता वर्णिनस्त्रयों मध्याः । अनुमतिविरतोहिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ॥ ३ ॥ " - सागारधर्मा० अ० ३ ।