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-८२६] उपासकाध्ययन
३०७ यदात्मवर्णनप्रायं क्षणिकाहार्यविभ्रमम् । परप्रत्ययसंभूतं दानं तद्राजेसं मतम् ॥२८॥ पात्रापात्रसमावेक्ष्यमसत्कारमसंस्तुतम् ।
दासभृत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे ॥८२६॥ कहना भावनिक्षेप है ।।८२७॥
भावार्थ-लोकमें प्रत्येक वस्तुका चार रूपसे व्यवहार पाया जाता है । वे चार रूप हैंनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। जैसे मुनिको ले लीजिए। 'मुनि' पदका व्यवहार चार रूपसे देखा जाता है । अनेक लोग अपने लड़कोंका नाम मुनि रख लेते हैं। वे लड़के गुणोंसे मुनि नहीं हैं किन्तु नामसे मुनि हैं। मुनियोंकी मूर्तियाँ स्थापनासे मुनि हैं उनमें मुनियोंको स्थापना की गयी है । नाम और स्थापनामें यह अन्तर है कि यद्यपि स्थापना होती तो नामपूर्वक ही है किन्तु जिस व्यक्तिकी स्थापना की गयी हो उसके पदके अनुसार उसका आदर वगैरह भी किया जाता है, परन्तु नाममें यह बात नहीं है। जिस बच्चेका नाम मुनि है उसका मुनिकी तरह कोई समादर नहीं करता किन्तु मुनिकी मूर्तिको सब कोई पूजते हैं। और जो व्यक्ति भविप्यमें मुनि होनेवाला है
और उसके लिए प्रयत्नशील है वह द्रव्यकी अपेक्षा मुनि है। उसमें मुनिपना द्रव्यरूपसे है भाव रूपसे नहीं है। किन्तु जो बाह्य और अन्तरसे मुनिपदका धारी है वह भावसे मुनि है। इस प्रकार मुनिके चाररूप लोकमें पाये जाते हैं इनमें-से नामरूपको छोड़कर शेष तीन रूप मान्य हैं; क्योंकि उनमें किसी-न-किसी रूपमें मुनिपदकी बुद्धि या उसकी योग्यता पायी जाती है। वर्तमानके जिन मुनियोंमें मुनिपदके अनुकूल आचरण नहीं पाया जाता, ग्रन्थकारने उनमें भो पूर्व मुनियोंकी स्थापना करके उनका समादर करनेका विधान किया है । [अब प्रकारान्तरसे दानके तीन भेद बतलाते हैं-]
राजस दान जो दान अपनी ख्यातिकी भावनासे कभी-कभी किसीको तब दिया जाता है जब दूसरे दाताको वैसे दानसे मिलनेवाले फलको देख लिया जाता है, उस दानको राजस दान कहते हैं। अर्थात् उसे स्वयं तो दानपर विश्वास नहीं होता किन्तु किसीको दानसे मिलनेवाला फल देखकर कि इसने यह दिया था तो उससे इसे अमुक-अमुक लाभ हुआ, दान देता है। ऐसा दान रजोगुण प्रधान होनेसे राजस कहा जाता है ॥२८॥
- तामस दान पात्र और अपात्रको समानरूपसे मानकर या पात्रको अपात्रके समान मानकर विना किसी आदर-सम्मान और स्तुतिके, नौकर-चाकरोंके उद्योगपूर्वक जो दान दिया जाता है उस
१. स्वचित्ते दानस्य विश्वासो नास्ति परन्तु कस्यविद्दानस्य फलं दृष्ट्वा अनेन ईदृशं प्राप्तं पश्चात् ददाति । २. "निजस्तवनलालसैरलससादरैः सान्तरं यशोलवसमाकुल: कलितलोकसम्प्रत्ययम् । सगर्वमविभावितातिथिगुणं च यद्दीयते विहायितमितीरितं मतिमतां मतै राजसम् ॥७९॥"-धर्मरत्न. ५० १२७ । ३. "पात्राविचारणाविरहितं दूरादपास्तादरं, भार्यासूनुनियोगिभिविरचितं चित्तादिशुद्धिच्युतम् । मात्सर्योपहतं विवेकविकलं यत्किम्चनाऽपि च, एतत्तामसमामनन्ति मुनयो दानं गतप्रार्चनम् ॥ ८०॥"-धर्मरत्ना०, प० १२७ ।
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