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-८२४]] उपासकाध्ययन
१०५ अनुवीचीवचो भाष्यं सदा पूज्यादिसंनिधौ । यथेष्टं हसनालापान वर्जयेद्गुरुसंनिधौ ॥८१७॥ भुक्तिमात्रप्रेदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्ध यति ॥१८॥ सर्वारम्भप्रेवृत्तानां गृहस्थानां धनव्ययः । बहुधास्ति ततोऽत्यर्थ न कर्तव्या विचारणा ॥१६॥ यथा यथा विशिष्यन्ते तपोशानादिभिर्गुणैः । तथा तथाधिकं पूज्या मुनयो गृहमेधिभिः ॥२०॥ दैवालब्धं धनं धन्यैर्वप्तव्यं समयाश्रिते । एको मुनिर्भवेल्लभ्यो न लभ्यो वा यथागमम् ॥८२१॥ उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । नैकस्मिन्पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः ॥२२॥ ते नामस्थापनाद्रव्यभावन्यासैश्चतुर्विधाः । भवन्ति मुनयः सर्वे दानमानादिकर्मसु ॥८२३॥ उत्तरोत्तरभावेन विधिस्तेषु विशिष्यते ।
पुण्यार्जने गृहस्थानां जिनप्रतिकृतिष्विव ॥२४॥ अभिवादन करते हैं । पूज्य पुरुषों के सामने सदा शास्त्रानुकूल वचन बोलना चाहिए । तथा गुरुजनों के समीपमें स्वच्छन्दतापूर्वक हँसी-मजाक नहीं करना चाहिए ॥ ८१६-८१७ ॥
केवल आहारदानके लिए साधुओंकी परीक्षा नहीं करनी चाहिए। चाहे वे सज्जन हों या दुर्जन हों। गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता है ॥ ८१८ ॥ गृहस्थ लोग अनेक आरम्भोंमें फंसे रहते हैं और उनका धन भी अनेक प्रकारसे खर्च होता है। इससे तपस्वियोंको आहारदान देनेमें ज्यादा सोच-विचार नहीं करना चाहिए ।। ८१६ ॥ मुनिजन जैसे-जैसे तप, ज्ञान आदि गुणोंसे विशिष्ट हों वैसे-वैसे गृहस्थोंको उनका अधिक समादर करना चाहिए ॥ ८२० ॥ धन भाग्यसे मिलता है, अतः भाग्यशाली पुरुषोको आगमानुकूल कोई मुनि मिले या न मिले, किन्तु उन्हें अपना धन जैन धर्मानुयायिओंमें अवश्य खर्च करना चाहिए ॥ ८२१ ।। जिन भगवान्का यह धर्म अनेक प्रकारके मनुष्योंसे भरा है । जैसे मकान एक खम्भेपर नहीं ठहर सकता वैसे ही यह धर्म भी एक पुरुषके आश्रयसे नहीं ठहर सकता ।। ८२२ ॥
मुनियोंके चार मेद नाम, स्थापना, द्रव्य और भावनिक्षेपकी अपेक्षासे मुनि चार प्रकारके होते हैं और वे सभी दान, सम्मानके योग्य हैं ।। ८२३ ॥ किन्तु गृहस्थोंके पुण्य उपार्जनकी दृष्टिसे जिनविम्बोंकी तरह उन चार प्रकारके मुनियोंमें उत्तरोत्तर रूपसे विशिष्ट विधि होती जाती है ॥ ८२४ ॥
१. "भुक्तिमानप्रदाने तु""शूद्रो दानेन शुद्धधति"-सागारधर्मामृत अ० २-६४ श्लोकका टिप्पण । "अनेकधारम्भविम्भितानां वित्तव्ययो हर्म्यवतामगण्यः । तद्भुक्तिमात्रां हतये (?) न योग्या विचारणा लिङ्गिषु तीर्थहन्त्री ॥७॥"-धर्मरत्ना०, ५० १२७ । २. "देवायत्तां धनलवभवां प्राप्य भूति गृहस्थाः वप्तव्यासो जिनपसमयाध्यासितप्राणिभूमी। साधुः शुद्धव्रतगुणगणः सूत्रमार्गानुसारी चैको लक्षे क्षपितकलिलो लभ्यते वा न वेति ॥७१॥"-धर्मरत्ना० ५० १२७ । ३. -जनगृह-अ० ज०, मु०। ४. जिनप्रतिमावत्।।
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