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-८११] उपासकाध्ययन
३०३ समयी साधक साधुः सूरिः समयदीपकः । तत्पुनः पञ्चधा पात्रमामनन्ति मनीषिणः ॥८०८॥ गृहस्थो वा यतिर्वापि जैन समयमास्थितः । यथाकालमनुप्राप्तः पूजनीयः सुदृष्टिभिः ॥८०६॥ ज्योतिर्मन्त्रनिमित्ताः सुप्रशः कार्यकर्मसु । मान्यः समयिभिः सम्यक्परोक्षार्थसमर्थधीः ॥१०॥ दीक्षायात्राप्रतिष्ठाचाः क्रियास्तद्विरहे कुतः।
तदर्थ परपृच्छायां कथं च समयोन्नतिः ॥११॥ जो ऐसा दृढ़ विश्वास करके प्रयत्नशील रहेगा वह कभी किसीके चक्करमें नहीं फँसेगा । अतः दीनताको दूर करके सदा सच्चे निःस्पृही दिगम्बर गुरुओंकी ही सेवा-भक्ति करनी चाहिये । क्योंकि वे किसीसे कुछ माँगते नहीं हैं और न देनेवालेसे प्रसन्न होते हैं और न न देनेवालेपर क्रोध करते हैं । वे भोजनके लिए नहीं जीते किन्तु जीनेके लिए भोजन करते हैं । और उनका जीना जीनेके लिए नहीं है किन्तु स्व और परके कल्याणके लिए है।
[अब दूसरी तरहसे पात्रके पाँच भेद और उनका स्वरूप बतलाते हैं-]
बुद्धिमान् पुरुष समयी, साधक, साधु, आचार्य और धर्मके प्रभावकके भेदसे पात्रके पाँच भेद मानते हैं ॥८०८॥ गृहस्थ हो या साधु, जो जैन धर्मका अनुयायी है उसे समयी या साधर्मी कहते हैं । ये साधर्मी पात्र यथाकाल प्राप्त होनेपर सम्यग्दृष्टि भाइयोंको उनका आदर-सत्कार करना चाहिए ॥८०९॥ जिनकी बुद्धि परोक्ष अर्थको भली प्रकारसे जाननेमें समर्थ है उन ज्योतिषशास्त्र, मन्त्रशास्त्र और निमित्तशास्त्रके ज्ञाताओंका तथा कार्यक्रम अर्थात् प्रतिष्ठा आदिके ज्ञाताका साधर्मी भाइयोंको सम्मान करना चाहिए ॥१०॥
___ भावार्थ-प्रति अ. आ. और ज. में 'कायकर्मसु' पाठ है। और टिप्पणमें उसका अर्थ शारीरिक चिकित्सा करनेवाला वैद्य दिया है और प्रबोधसारमें भी वैद्य ही अर्थ लिया है। किन्तु धर्मरत्नाकरमें और सागारधर्मामृतमें उद्धृत श्लोकमें 'कायकर्मसु' पाठ है। हमें यही पाठ ठीक प्रतीत होता है क्योंकि आगेके श्लोकमें कहा है कि उसके अभावमें दीक्षा, यात्रा, प्रतिष्ठा आदि क्रिया कैसे हो सकती हैं । इन क्रियाओंको तो वही करा सकता है जो क्रियाकाण्डमें कुशल हो । अतः यही पाठ समुचित प्रतीत होता है।
यदि वह न हो तो जिनदीक्षा, तीर्थयात्रा और जिन विम्बप्रतिष्ठा वगैरह क्रियाएँ कैसे हो सकती हैं। क्योंकि इनमें मुहूर्त देखनेके लिए ज्योतिषविद्या और क्रियाकर्म करानेके लिए प्रतिष्ठाशास्त्रके ज्ञाताकी आवश्यकता होती है । शायद कहा जाये कि दूसरे लोगोंमें जो ज्योतिषी या मन्त्रशास्त्री हैं उनसे काम चला लिया जायेगा। किन्तु इस तरह दूसरोंसे पूछनेसे अपने धर्मकी उन्नति कैसे हो सकती है ॥ ८११ ॥
१. "समयिकसाधकसमयद्योतकनैष्ठिकगणाधिपान् घिनुयात् । दानादिना यथोत्तरगुणरागात् सद्ग्रही नित्यम् ॥५१॥"-सागारधर्मा०, अ० २। २ स्रावकः अ० ज० । श्रावक: मु० । ३. कायकर्मसुअ०, आ०, ज० । वद्यः ।