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सोमदेष विरचित [कल्प ४५, श्लो०८०४अशाततत्त्वचेतोभिर्दुराग्रहमलीमसैः। युद्धमेव भवेद्गोष्ठयां दण्डादण्डि कचाकचि ॥८०५॥ भयलोभोपरोधाद्यैः कुलिङ्गि निषेवणे। अवश्यं दर्शनं म्लायेनीराचरणे सति ॥२०६।। बुद्धिपौरुषयुक्तेषु दैवायत्तविभूतिषु।।
नृषु कुत्सितसेवायां दैन्यमेवातिरिच्यते ॥८०७॥ सेवा वगैरह नहीं करना चाहिए ॥८०४॥ तत्त्वोंसे अनजान और दुराग्रही मनुष्योंके साथ बातचीत करनेसे लड़ाई ही होती है जिसमें डण्डा-डण्डी और जूतम बाजार तककी नौबत आ सकती है ॥ ८०५ ॥ जो स्त्री-पुरुष किसी अनिष्टके भयसे या पुत्र वगैरहके लालचसे या दूसरोंके आग्रहसे कुलिङ्गी साधुओंकी सेवा करते हैं, उनका श्रद्धान नीच आचरण करनेसे अवश्य मलिन होता है ॥८०६॥ सभी मनुष्य बुद्धिशाली हैं और यथायोग्य पौरुष-उद्योग भी करते हैं किन्तु सम्पत्तिका मिलना तो भाग्यके अधीन है। फिर भी यदि मनुष्य बुरे मनुष्योंकी सेवा करता है तो यह तो दीनताका अतिरेक है ।।८०७॥
भावार्थ-जो स्वयं सन्मार्गमें लगे हुए हैं और दूसरोंको सन्मार्गमें लगाते हैं या सन्मार्गपर सच्ची आस्था रखते हैं वे पात्र कहलाते हैं। उन्हें श्रद्धा और भक्तिपूर्वक दान देना चाहिए । किन्तु जो साधुका तो वेष धारण किये हैं किन्तु सच्चे साधुका एक भी चिह्न जिनमें नहीं है ऐसे गंजेड़ी, भंगेड़ी, जटाजूटधारी, भिखमंगे साधु पात्र नहीं हैं किन्तु अपात्र हैं । उन्हें साधु समझकर दान देना मूर्खता है । ऐसे लोगोंको यदि कुछ दिया जा सकता है तो पात्र-बुद्धिसे नहीं, किन्तु दया-बुद्धिसे । और दया-बुद्धिसे या आवश्यकता समझकर भी जो दिया जाये वह इसी रूपमें दिया जाना चाहिए कि हम एक भूखे मनुप्यकी या दुःखी मनुष्यकी मदद कर रहे हैं, न कि इस रूपमें, जिससे ऐसा लगे कि हम किसी साधुकी अभ्यर्थना कर रहे हैं; क्योंकि ऐसा करनेसे अपनी सन्तानपर या दूसरोंपर गलत प्रभाव पड़नेका भय नहीं रहता, और इससे उन साधु-वेषियों को दूसरोंपर रंग जमानेका मौका नहीं मिलता। ऐसा देखा गया है कि साधुका वेष बनाकर घर-घर भीख माँगनेवाले मनुष्योंकी कमजोरीका लाभ उठाकर कभी-कभी उन्हें खूब ठगते हैं । उदाहरणके लिए घरमें कोई बीमार हुआ तो भय दिखाकर अपनी भभूत वगैरहके द्वारा घरवालोंपर रंग जमा लेते हैं। कभी सोना, चाँदी दूना करनेका लोभ दिखाकर गहरा हाथ मार देते हैं। पहले मनुप्य लोभमें आकर फँस जाता है और पीछे पछताता है। इसीलिए ग्रन्थकारने भय, लोभ और दूसरोंके कहनेसे भी इन प्रपंची साधुओं की सेवा करनेका कड़ा निषेध किया है । मनुष्योंको यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिए कि जो कुछ मनुष्यको मिलता है वह उसके पूर्व जन्ममें किये हुए या इस जन्ममें किये हुए शुभाशुभ कर्माका फल है । अपने शुभाशुभ कर्मोंके सिवा कोई किसीको न कुछ दे सकता है और न उसका कोई कुछ भला या बुरा कर सकता है। इसलिए उसे यह भाव अपने मनसे निकाल ही देना चाहिए, कोई दूसरा कुछ दे सकता है।
१. आग्रह । २. सेवायां सत्यां । “भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः गुद्धदृष्टयः ॥३०॥"-रत्न करंण्ड श्रा० ।