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सोमदेव विरचित [कल्प ४२, बो० ७६३ स्वीक्षितस्य च प्राशस्तस्संख्याक्षतिकारणम् ॥७६३|| इत्थं नियतवृत्तिः स्यादनिच्छोऽप्याश्रयः श्रियाम् ।
नरो नरेषु देवेषु मुक्तिश्रीसविधागमः ॥७६४॥ इत्युपासकाध्ययने भोगपरिभोगपरिमाणविधिर्नाम द्विचत्वारिंशत्तमः कल्पः ।
छू गया है या जिसमें जन्तु जा पड़े हैं, तथा जिसे हमने देखा नहीं है ऐसे भोजनको खाना भोगपरिभोगपरिमाणवतको क्षतिका कारण होता है ॥७६३॥
भावार्थ-भोगोपभोगपरिमाणवतमें भोम्य और उपभोग्य वस्तुओंका यावज्जीवन या कुछ समयके लिए परिमाण किया जाता है। परिग्रहपरिमाणव्रतमें तो सम्पत्तिका ही परिमाण किया जाता है, किन्तु इसमें उन वस्तुणोंका परिमाण किया जाता है जिन्हें मनुष्य प्रतिदिन अपने सेवनमें लाता है । इनका परिमाण कर लेनेसे मनुष्यकी चित्तवृत्ति एक सीमामें बद्ध हो जाती है और फिर वह ज्यादा इधर-उधर नहीं भटकती । प्रायः ऐसा देखा जाता है कि नयी वस्तुको देखते ही मन चंचल हो उठता है । और तब हमें आवश्यकता न होनेपर भी नयी वस्तुओंका संग्रह करना पड़ता है। इससे एकके पास अनावश्यक संग्रह होता है और दूसरे जिन्हें उसकी आवश्यकता है वे उसके बिना कष्ट भोगते रहते हैं। किन्तु परिमाण कर लेनेसे एक ओर हम अनावश्यक वस्तुओंके संचयके भारसे बच जाते हैं दूसरी ओर दूसरे लोग उनसे अपना काम चलाते हैं । अतः खान-पान, विषय-भोग, सवारी, कपड़ा आदि सभी वस्तुओंकी एक मर्यादा कर लेनी चाहिए। इससे तृष्णा शान्त होती है और तृष्णा शान्त होनेसे मनुष्यको शान्ति मिलती है। शान्ति मिलनेसे उसके परिणाम निर्मल होते हैं। परिमाण करते समय ऐसी वस्तुएँ जो अखाद्य हैं या सेवन करनेके योग्य नहीं हैं, क्लिकुल त्याग देनी चाहिए। जिनके सेवनसे स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता उन्हें भी छोड़ देना चाहिए और खान-पान ऐसा होना चाहिए जिससे शरीर और इन्द्रियाँ सभी स्वस्थ रहें और कामभोग शादि विकारोंको बल न मिल सके। यदि ऐसी वस्तुओंका सेवन किया गया जो रोगकारक हैं या विकारकारक हैं तो भोगोपभोगपरिमाणव्रतकी मर्यादा सुरक्षित नहीं रह सकेगी; क्योंकि यदि हम रोगी हो गये तो हमारे व्रत, नियम सब रखे रह जायेंगे और हम अपना प्रतिदिनका भी धर्मसाधन न कर सकेंगे। अतः खान-पान, रहन-सहन सब सादा होना चाहिए।
इस प्रकार जो भोगोपभोगका परिमाण करता है वह मनुष्य और देवपर्यायमें जन्म लेकर बिना चाहे ही लक्ष्मीका स्वामी बनता है और मुक्ति भी उसे मिल जाती है ॥७६४॥
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें भोगोपभोगपरिमाण नामक बयालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
१. "स्यादित्थं नियता वृत्तिर्यस्य सर्वेषु वस्तुषु । स सर्वासां श्रियामीशः सर्वविश्वेषु वर्तताम् ॥१२॥" -प्रबोधसार पृ. १८६ ।