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सोमदेव विरचित
विधोविशुद्धिश्च नवोपचाराः कार्या मुनीनां गृहसंश्रितेन ॥७७७॥ श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः । यत्रैते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ||७७८ ||
[ कल्प ४२, श्लो० ७७७
आते देखकर उन्हें आदरपूर्वक ग्रहण करना चाहिए कि स्वामी ! ठहरिए, ठहरिए, ठहरिए। यदि वे ठहर जायें तो घर में ले जाकर उन्हें ऊँचे आसनपर बैठाना चाहिए । फिर उनके चरणोंकी पूजा करनी चाहिए । फिर उन्हें प्रणाम करना चाहिए । फिर उनसे निवेदन करना चाहिए कि मेरा मन शुद्ध है, वचन शुद्ध है, काय शुद्ध है और अन्न जल शुद्ध है। ये नवधा भक्ति हैं ||७७७ || भावार्थ - 3 - आजकल कुछ लोग इस नवधा भक्तिको व्यर्थं बतलाते हैं । किन्तु यह व्यर्थं नहीं है। इससे एक तो साधुको सद्गृहस्थकी पहचान हो जाती है । वे जान जाते हैं कि यह गृहस्थ कैसा है । इसके यहाँ जो भोजन बना है वह उसने विधिपूर्वक बनाया है या नहीं । इसके मनमें देते हुए कुछ संक्लेश तो नहीं हो रहा है ? आदि । दूसरे, लेनेवालेसे देनेवालेका पद ऊँचा समझा जाता है । अतः यदि नवधा भक्ति न करायी जाये तो गृहस्थ अपनेको ऊँचा मानने लगे और साधुको नीचा मानने लगे । और ऐसा माननेसे धर्मकी साक्षात् मूर्ति साधुजनोंके प्रति अवज्ञा - का भाव आ जानेसे धर्मके प्रति भी श्रद्धा उठ जाये, अतः मैं जो कुछ देता हूँ वह अपनी श्रद्धाबुद्धिसे देता हूँ और मुझसे लेकर भी यही बड़े और पूज्य हैं । इत्यादि भावको बनाये रखने के लिए नवधा भक्तिपूर्वक ही आहारदान की विधि बतलायी गयी है ।
[ अब दाताके सात गुण बतलाते हैं- ]
जिस दातामें श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलोभीपना, क्षमा और शक्ति ये सात गुण पाये जाते हैं वह दाता प्रशंसा के योग्य होता है || ७७८ ॥
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भावार्थ- पात्रदानको अच्छा समझना श्रद्धा है । देते हुए प्रसन्नताका होना सन्तोष है । पात्रके गुणोंमें अनुरागका होना भक्ति है । कैसा द्रव्य देना चाहिए इत्यादि बातोंका ज्ञान होना विज्ञान है। दान देकर किसी सांसारिक फलकी इच्छा न करना अलोभीपना है । क्रोधके कारण
२० पर्व | " उक्तं हि — प्रतिग्रहोच्चस्थाने च पादक्षालनमर्चनम् । प्रणामो योगशुद्धिश्च भिक्षाशुद्धिश्च ते नव ।” - चारित्रसार पृ० १४ । “संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामञ्च । वाक्कायमनः शुद्धि रेषणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥१६८॥ |” – पुरुषार्थसि० । “पडिगहमुच्चद्वाणं पादोदयमच्चणं च पणमं च। मणवयणकायसुद्धी सणसुद्धी य दाणवि ॥ २२५ ॥ " वसुनन्दिश्रा० । प्रतिग्रहोच्चासनपादपूजाप्रणामवाक्कायमनः प्रसादाः । विधाय शुद्धिश्च नवोपचाराः कार्या यतीनां गृहमेधिनेति धर्मरत्नाकर । पृ० १६२ ।
१. आहार । २. “प्रतिग्रहीतरि अनसूयात्यागेऽविषादः दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः कुशलाभिसन्धिता दृष्टफलानपेक्षिता निरुपरोषत्वमनिदानत्वमित्येवमादिः दातृविशेषोऽवसेयः । " तत्त्वार्थवार्तिक पृ० ५५९ । “श्रद्धा शक्तिश्च भक्तिश्च विज्ञानञ्चाप्यलुब्धता । क्षमा त्यागश्च सप्तैते प्रोक्ता दानपतेर्गुणाः ॥८२॥” महापुराण, २० पर्व । "एहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥ १६९॥” – पुरुषार्थसि ० । “ उक्तं हि - श्रद्धा शक्तिरलुब्धत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा । इति श्रद्धादयः सप्त गुणाः स्युर्ग हमेधिनाम् । ” — चारित्रसार पृ० १४ । “सद्धा भत्ती तुट्ठी विष्णाण मलुद्धया खमा सत्ती । जत्थे सत्तगुणा तं दायारं पसंसंति ॥ २२४ ॥ - वसुनन्दिश्रा० । अमितगतिश्रा० ९ - ३ ।