________________
२६४
सोमदेव विरचित [कल्प ४३, श्लो० ७६६परलोकधिया कश्चित्कश्चिदैहिकचेतसा।। औचित्यमनसा कश्चित्सतां वित्तव्यनिधा ॥७६६॥ परलोकैहिकौचित्येष्वस्ति येषां न धीः समा। धर्मः कार्ये यशश्चेति तेषामेतत् प्रयं कुतः ॥७७०॥ अभयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधम् । दानं मनीषिभिः प्रोक्तं भक्तिशक्तिसमाश्रयम् ॥७७१॥ सौरूप्येमभयादाहुराहारागोगवान् भवेत्। . आरोग्यमौषधाज्ञयं श्रुतात्स्याच्छू तकेवली ॥७७२॥
सज्जन पुरुष तीन प्रकारसे अपने धनको खर्च करते हैं : कोई परलोकको बुद्धिसे कि परलोकमें हमें सुख प्राप्त होगा, धन खरचते हैं । कोई इस लोकके लिए धन खरचते हैं और कोई उचित समझकर धन खरचते हैं । किन्तु जिन्हें न परलोकका ध्यान है, न इहलोकका ध्यान है और न औचित्यका ही ध्यान है वे न धर्म कर सकते हैं, न अपने लौकिक कार्य कर सकते हैं और न यश ही कमा सकते हैं ॥ ७६९-७७० ॥
. भावार्थ-इस लोककी बुद्धिसे धन खरचनेसे लौकिक काम विवाह-शादी, रोजगारमें सफलता, लोकसम्मान आदि कार्य होते हैं। तथा परलोककी बुद्धिसे या उचित समझकर दान देनेसे धर्म और यश होता है। जैसे मुनियोंको दान देना आदि, बाढ़पीड़ितोंको या दुर्भिक्षपीड़ितोंको मदद देना, शिक्षा-औषधालयकी आवश्यकता समझकर दान देना आदि । जो इन तीनोंमें धन नहीं खरचते, न उनके लौकिक कार्य सफल होते हैं और न पारलौकिक । तथा उन्हें यश भी नहीं मिलता।
दानके भेद बुद्धिमान् पुरुषोंने चार प्रकारका दान बतलाया है-अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदान । ये चारों दान अपनी शक्ति और श्रद्धाके अनुसार देने चाहिए ॥ ७७१ ॥
चारों दानोंका फल अभयदानसे सुन्दर रूप मिलता है । आहार दानसे भोग मिलते हैं। औषधदानसे आरोग्य प्राप्त होता है और शास्त्रदानसे श्रुतकेवली होता है ॥७७२॥
१. "आहारोषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन । वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ॥११७॥"रत्नकरण्ड श्रा० । “त्यागो दानम् । तत्रिविधं आहारदानमभयदानं ज्ञानदानं चेति ।"-सर्वार्थसि०६-२४ । "आहारोसहसत्थाभयभेओ जं चउविहं दाणं । तं वुच्चइ दायव्वं णिद्दिट्टमवासयज्झयणे ॥२३३॥"--वसुनन्दि श्राव० । 'अभयान्नौषधज्ञानभेदतस्तच्चतुर्विधम् । दानं निगद्यते सद्भिः प्राणिनामुपकारकम् ।।८३॥"-अमित० श्राव०,९ परि० । "निर्भयाहारयोनिमौषधश्रुतयोरपि। सदा मनीषिभिर्देयं शुद्धधर्मप्रवर्तनम् ॥१७॥"--प्रबोधसार पृ० १९० । २. "अभीतितोऽनुत्तमरूपवत्त्वमाहारतो भोगविभूतिमत्त्वम् । भैषज्यतो रोगनिराकुलत्वं श्रुतादवश्य श्रुतके वलित्वम् ।।"-धर्मरत्नाकर पृ० १२३ । “सौरूप्यमभयात् प्राहुराहारात् सर्वसुस्थता। श्रुतात् श्रुतमतामोशो निर्व्याधित्वं तथौषधात् ॥१८॥"-प्रबोधसार १० १९० ।