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उपासकाध्ययन
यथाविधि यथादेशं यथाद्रव्यं यथागमम् । थापात्रं यथाकालं दानं देयं गृहाभ्रमैः ॥ ७६५ ॥ श्रात्मनः श्रेयसेऽन्येषां रत्नत्रयसमृद्धये । स्वरानुग्रहायेत्थं यत्स्यात्तद्दानमिष्यते ॥७६६ || दादपात्रविधिद्रव्यविशेषान्तद्विशिष्यते । यथा घनाघनोद्गीर्ण तोयं भूमिसमाश्रयम् ॥७६७॥ दातानुरागसंपनः पात्रं रत्नत्रयोचितम् । सरकारः स्वाधिष्यं तपःस्वाध्यायसाधकम् ॥७६८ ॥
दानका स्वरूप
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[ अब दानका वर्णन करते हैं- ]
गृहस्थोंको विधि, देश, द्रव्य, आगम, पात्र और कालके अनुसार दान देना चाहिए ||७६५|| जिससे अपना भी कल्याण हो और अन्य मुनियोंके रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी उन्नति हो, इस तरह जो अपने और दूसरोंके उपकारके लिए दिया जाता है उसे ही दान कहते हैं ||७६६॥
जैसे मेघोंसे बरसा हुआ पानी भूमिको पाकर विशिष्ट फलदायी हो जाता है वैसे ही दाता, पात्र, विधि और द्रव्यकी विशेषता से दानमें भी विशेषता आ जाती है ||७६७॥
दाता आदिका स्वरूप
जो प्रेमपूर्वक दे वह दाता है, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रसे भूषित है वह पात्र है । आदरपूर्वक देनेका नाम विधि है और जो तप और स्वाध्यायमें सहायक हो वही द्रव्य है || ७६८ ॥
भावार्थ-सारांश यह है कि यदि देनेवाला योग्य पात्रको प्रेमसे आदरपूर्वक ऐसी वस्तु दे जो उसके आत्मकल्याणके मार्गमें सहायक हो वह दान उत्तम दान है । और जिस किसीको जो कुछ भी निरादरपूर्वक दें डालना दान नहीं है । जिसका मन दान देते हुए दुःखी होता है या जो नाम आदिके लोभसे दान देता है वह दाता नहीं है। जो स्व-परकल्याणमें रत नहीं है वह पात्र नहीं है । और न निरादरपूर्वक देना देना है। तथा ऐसा भोजन, जो घी तथा स्वादकी दृष्टि बहुमूल्य होते हुए भी साधुके ज्ञान, ध्यानका साधक नहीं है, वह साधुओंके योग्य द्रव्य नहीं है।
१. " पात्रानमविधिद्रव्यदेशकालानतिक्रमात् । दानं देयं गृहस्थेन तपश्चयं च शक्तितः ॥ ४८ ॥ | - सागाधर्मामृत २० । "ययाद्रव्यं यथादेशं यथा पात्रं ययापथम् । ययाविधानसम्पत्या दानं देयं तदर्थनाम् || १३|| ” - प्रबोधसार पृ०१८७ । २. " अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥" - तत्त्वार्थसूत्र ७-३८ । ३. “विधिद्रव्यदातु - पात्रविशेषात्तद्विशेषः ।।”— तस्वार्थसूत्र ७ - ३९ । “पात्रदातृविधिद्रव्यविशेषैस्तद्विशिष्यते । यथाम्बु तोयदैर्वान्तं स्थाने स्थाने विशिष्यते ।। १५ ।। " - प्रबोधसार पृ० १८८ ।