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उपासकाध्ययन स्नानगन्धालसंस्कारभूपायोचाविकधीः । 'निरस्तसर्वसाक्यक्रिया संयमतत्परः ॥७५३|| देवामारे गिरौ चापि गृहे या महनेऽपि वा।
उपोषितो भवेन्नित्यं धर्मध्यानपरायणः ॥७४।। भोजन करता है । तब वह प्रोषधोपवास कहा जाता है । जो प्रोषधोपवास नहीं कर सकते, वे अनुपवास कर सकते हैं । अनुपवासमें एक बार केवल जल लिया जाता है। और जो उपवास भी नहीं कर सकते वे एक बार हलका सात्त्विक आहार ले सकते हैं । इसे एकाशन कहते हैं। एकाशनका मतलब है एक बार भोजन । इसी तरह तिथि, नक्षत्र वगैरहका विचार करके आगममें बतलाये गये अन्य उपवास भी यथाशक्ति श्रावकको करने चाहिए ।
[आगे उपवासकी विधि बतलाते हैं-].
उपवास करनेवाला गृहस्थ स्नान, इत्र-फुलेल, शरीरकी सजावट, आभूषण और स्त्रीसे मनको हटाकर तथा समस्त सावद्य क्रियाओंसे विरक्त होकर संयममें तत्पर हो और देवालयमें, पहाड़पर या घरमें अथवा किसी दुर्गम एकान्त स्थानमें जाकर धर्मध्यानपूर्वक अपना समय बितावे ॥७५३-७५४॥
___ भावार्थ-उपवासके दिन स्नानका भी निषेध किया गया है। इसपर प्रायः कुछ भाई यह आपत्ति करते हुए देखे जाते हैं कि बिना स्नान किये पूजा कैसे की जा सकती है। ऐसी आपत्ति करनेवाले उपवासका महत्त्व नहीं समझते । उपवासका महत्त्व पूजनसे भी अधिक है। पूजन द्रव्यका आलम्बन लेकर मन, वचन और कायकी एकाग्रताके लिए किया जाता है । उससे सामायिक ऊँचा है; क्योंकि सामायिकमें द्रव्यादिक परवस्तुका आलम्बन न लेकर अमुक समय तक मन, वचन और कायको एकाग्र किया जाता है, किन्तु उपवास सामायिकसे भी ऊँचा है, क्योंकि उसमें समस्त सावध कायोंको छोड़कर उपवासके समय तक मन, वचन और कायकी एकाग्रता रखी जाती है। केवल पेटको ही भूखे रखनेका नाम उपवास नहीं हैकिन्तु जिसमें पाँचों इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयोंसे निवृत्त होकर उपवासी रहती हैं वही सच्चा उपवास है। अतः उपवासके दिन गृहस्थको भावपूजा करनी चाहिए; किन्तु चूंकि अधिकतर गृहस्थ लोग इतनी ऊंची परिणतिके नहीं होते, जो इस प्रकारका आदर्श उपवास कर सकें, अतः वे स्नान करके प्रासुक द्रव्यसे पूजा कर सकते हैं।
१. “पञ्चानां पापानामलठ्ठियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । स्नानाजननस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात् ॥१०७॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वाऽन्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपबसन्नतन्द्रालुः ॥१०८॥" रत्नकरण्डश्रा० । “स्वशरीरसंस्कारकारणस्नानगन्धमायाभरणादिविरहितः शुभावकाशे साधुनिबासे चंत्यालये स्वप्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाचिन्तनावहितान्तःकरण: सन्नुपवसेत् निरारम्भः श्रावकः ।"-सर्वार्थसिद्धि ७-२१॥ "मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्याः । उपवासं गृह्णीयान् ममत्वमपहाय देहादी ॥१५२॥ श्रित्वा विविक्तवसति समस्तसावद्ययोगमपनीय । सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत्. ॥१५३॥ धर्मध्यानाशक्तो वासरमतिवाह्य विहितसान्ध्यविधिः । शुचिंसंस्तरे त्रियामां गमयेत् स्वाध्यायजितनिद्रः ॥१५४॥ प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिक क्रियाकल्पम् । निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रासुकद्रव्यः ॥१५५।। उक्तेन ततो विधिना नीत्वा दिवसं द्वितीयसत्रि च । अतिवाहयेत् प्रयत्नादधं च तृतीयदिवसस्य ॥१५६॥ इति यः षोडशयामान् गमयति परिमुक्तसकलसावद्यः। तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसावतं भवति॥१५७॥"-पुरुषार्थसि० । "ताम्बूलगन्धमाल्यस्नानाभ्यङ्गादिसर्वसंस्कारम् । ब्रह्मव्रतगतचित्त:स्थातव्यमुपोषितस्त्यक्त्वा ।।८९॥"-अमित. श्राव०, परि० ६ । २. निवृत्तिसर्व-अ० ज० मू० ।