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देवक
निषित चिप ५०, लोकपाणि 'प्रोपवान्यातुर्मासे चापारिवारिक पूजाकियामताधिषयावर्मकर्मावत् ॥५०॥ रसत्यागैकमकैकस्थानोपवसनक्रियाः । यथाशक्तिर्विधेयाः स्युः पर्वसन्धौ च पर्वणि||७५१॥ तोरन्तर्यसान्ततिथितीर्थःपूर्वकः।।
उपवासविधिश्वित्रमित्यः श्रुतसमाश्रयः ॥५२॥ [इस प्रकार शिक्षाव्रतके चार भेदों में से प्रथम भेद सामायिकका स्वरूप बतलाकर अब ग्रन्थकार दूसरे प्रोषधोपवास व्रतका स्वरूप बतलाते हैं ]
प्रोषधोपवास व्रतका स्वरूप __ प्रोषध पर्वको कहते हैं। वे पर्व प्रत्येक मासमें चार होते हैं । इन पर्वोमें विशेष पूजा, विशेष क्रिया और विशेष व्रतोंका आचरण करके धर्म-कर्मको बढ़ाना चाहिए ॥ ७५० ॥ पर्व तथा पर्व सन्धि दिनोंमें रसोंका त्याग, एकाशन, एकान्त स्थलमें निवास, उपवास आदि क्रियाएँ यथाशक्ति करनी चाहिए ।। ७५१ ॥ लगातार या बीचमें अन्तराल देकरके तिथि तीर्थक्करोंके कल्याणक तथा नक्षत्र वगैरहका विचार करके भागमानुसार अनेक प्रकारके उपवासकी विधिको विचार लेना चाहिए। अर्थात् रसत्याग, एकभक्त, उपवास आदि कोई तो सदा करते हैं, कोई अमुक तिथिको करते है, कोई तीर्थकरोंके कल्याणकके दिन करते हैं, इस प्रकार अनेक प्रकारके उपवासकी विधिका आगमानुसार विचार कर लेना चाहिए ।। ७५२ ॥
भावार्थ-प्रोषध पर्वको कहते हैं। प्रत्येक मासमें दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इस तरह चार पर्व होते हैं। उनमें उपवास करनेको प्रोषधोपवास कहते हैं। नौमी और अमावस्या या पूर्णमासी पर्वके सन्धि दिन कहलाते हैं। उनमें भी यथाशक्ति एकाशन वगैरह किया जाता है। यथार्थमें प्रोक्योपवासकी विधि पर्वके पहले दिनसे ही प्रारम्भ हो जाती है । सप्तमी या त्रयोदशीको मध्याहका भोजन करके ही उपवासकी प्रतिज्ञा ले ली जाती है और समस्त गार्हस्थिक कार्योंसे निवृत्त होकर गृहस्थ एकान्त स्थानमें चला जाता है तथा सोलह पहर तक यानी दो पहर सप्तमी या त्रयोदशीके चार पहर रातके, चार पहर अष्टमी या चतुर्दशीके, चार पहर उसकी रातके और दो पहर नौमी या पन्द्रसके इस तरह सोलह पहर तकका समय धर्मध्यानपूर्वक बिताकर एकबार
१. 'चतुराहारविसर्जनमुपवास: प्रोषधः सकृद्भुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ॥१०९॥-' रत्नकरंडश्रा० । 'प्रोषधशब्दः पर्वपर्यायवाची""प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः'। सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थकार्तिक ७-२१ । 'मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषवदिनपूर्ववासरस्यार्थे । उपवासं ग्रहीयान्ममत्वमपहाय देहादी ॥१५२॥' पुरुषार्थसिद्धघुयाय । 'हेत्वोरात्मस्वभावस्य पूरणात् पर्व गीयते । पूजा क्रियाव्रताधिक्यधर्मकर्मात्र वृहयेत् ।।-धर्मरत्नाकर पृ० ११३ । 'स प्रोषधोपवासो यच्चतुष्पव्या यथागमम् । साम्यसंस्कारदाढर्याय चतुर्युक्त्युग्मन सदा ॥-सागारधर्मामृत ४-३४ । 'सिद्धान्तसम्मतं पर्व प्रोषधं तं विदुर्बुधाः । तत्र तत्रोपवासादिविधेयो विषिवद्विधिः ॥१॥-प्रबोधसार ३ अध्याय । 'प्रोषधः पर्ववाचीह चतुर्दाहारवर्जनम् । तत्प्रोषधोपवासास्यं व्रतं साम्यस्य सिद्धये ॥६०॥"-धर्मसंग्रह श्राव०, पु. १६९ । २. अष्टम्याम । 'सपर्या नियमं दानं शीलव्रतप्रभावनाम् । व्रतविद्यातपोवृत्तश्रुतादीन् तत्र बहयेत् ॥२॥-प्रबोषसार पृ० १८१ । २. 'स्थाने वने श्मशाने वा देवस्थानाद्रिभूमिषु । धर्मध्यानाय संवासः प्रोषधस्योपवासिनाम् ॥४॥-प्रबोधसार, पु. १८२ । ३. तन्नेरन्तयतिथि-अ० ज० म०।४. नक्षत्र । ५. नाना प्रकारः ।