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-२२१ ] उपासकाध्ययन
१०१ दृष्टविशिष्टतामिवात्मस्थितामप्यविदुषे निवेद्य तदुपसर्गापवर्गायास्मत्सर्गानियोजयितव्यः' । पुष्पकदेवत्रिदशोचितचरणसेवस्य तस्य महर्षेर्भाषितात्तं देशमासाद्य विष्णुमुनये तथाविधर्द्धिवृत्तिं गुरुनिदेशप्रवृत्तिं च प्रतिपादयामास । विष्णुमुनिः प्रदीप इव स्फाटिकभित्तिमध्यलब्धप्रसरेण किरणनिकरण वारिधिवज्रवेदिकानिर्भेदनेन मानुषोत्तरगिरिपर्यन्तसंवेदनेन मनुष्यक्षेत्रसूत्रपातविडम्बनकरण करेणोर्णनाभ इव तन्तुनिकाये काये स्ववशाश्रयया व्याससमासक्रियया च तामवगम्योपगम्य च हास्तिनपुरं 'न खल्वनिवेद्य निखिलवर्णिवर्णाश्रमपालाय मध्यमलोकपालायामर्षप्रवृत्ततन्त्रण हुंकारमात्रेणाप्याकम्पितजगत्त्रयाः प्रसंख्यानवनविध्वंसदावे तपःप्रभावे दुर्जनविनयनार्थमभिनिविशन्ते यतीशाः' इति च परामृश्य, प्रविश्य च पुरैव चिरपरिचितकञ्चुकिसूचितप्रचारोऽन्तःपुरं, पप्रमहीपते, राजधानीष्वरण्यानीषु वा तपस्यतः संयतलोकस्य न खलु नरेश्वरात्परः प्रायेणास्ति गोपायिता । तत्कथं नाम तृणमात्रेs. प्यनपराधमतीनां यतीनामात्मन्यशुभलोकनिषेकसर्गमुपसर्ग सहसे इत्युक्तम् । 'भगवन् । सत्यमेवैतत् । किंतु कतिचिहिनानि बलिरत्र राजा नाहम्' इति प्रत्युक्तियुक्तस्थितिं पद्मनृपतिमवमत्य 'छलेन खलु परेषु प्रायेण फलोलासनशीलास्तपः प्रभवद्धिलीलाः' इति चावगत्य शालाकर सकते । अतः विक्रिया ऋद्धिके धारक विष्णु मुनिके पास जाओ । यद्यपि उन्हें ऋद्धि प्राप्त हो चुकी है किन्तु उन्हें यह बात ज्ञात नहीं है। तुम जाकर उनसे कहो और हमारे आदेशसे उन्हें उस उपसर्गको दूर करनेके लिए नियुक्त करो।'
इन्द्रके पूजने योग्य उन महर्षिके कहनेसे पुष्पकदेव विष्णु मुनिके पास पहुँचा और उनसे विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न होनेकी बात तथा गुरुकी आज्ञा कह दी। विष्णु मुनिने अपने हाथको मानुषोत्तर पर्वत तक फैलाकर तथा फिर संकोचकर विक्रिया ऋद्धिकी परीक्षा की और हस्तिनागपुर जा पहुँचे।
___'मुनियोंके तपका प्रभाव उस दावाग्निके समान है जो असंख्य जंगलोंको जलाकर राख कर देती है। यदि मुनि क्रोधमें आकर हुंकार मात्र कर दें तो उनके हुंकार मात्रसे तीनों लोक काँप जाते हैं। किन्तु वे समस्त वर्णाश्रम धर्मके पालक राजासे कहे विना दुर्जनको दण्ड देने का प्रयत्न नहीं करते।' यह सोच विष्णु मुनि राजमहल में पहुँचे। पुराने परिचित द्वारपालने जैसे हो उन्हें आते देखा तत्काल राजा पद्मसे उनके आनेका समाचार कहा।
विष्णु मुनि बोले-'राजा पदम ! राजधानियोंमें अथवा वनोंमें तपस्या करनेवाले मुनिजनोंका रक्षक राजाके सिवा अन्य कोई नहीं है। अतः तृणमात्रका भी अपराध न करनेवाले मुनियोंपर दुर्जनोंके द्वारा किये जानेवाले उपसर्गको तुम कैसे सहन कर रहे हो ?'
_ 'भगवन् ! आपका कहना ठीक है । किन्तु कुछ दिनोंके लिए यहाँका राजा बलि है, मैं नहीं।' पद्मने उत्तर दिया।
इस उत्तरको सुनकर उन्होंने राजा पद्मकी स्थितिको जाना और यह सोच कि प्रायः तपके प्रभावसे उत्पन्न हुई ऋद्धिका चमत्कार यदि दूसरोंपर छलसे प्रकट किया जाये तो वह फलदायक होता है, विष्णु मुनिने वामन रूप बनाया और यज्ञ भूमिमें जाकर मधुर कण्ठसे साम वेदका गान करने लगे।
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१. अजानते । २. मोचनाय । ३. आदेशात् । ४. विक्रियद्धि । ५. अवगणय्य ।-मवगत्य अ० ज० ।