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सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३२६आश्रितेषु च सर्वेषु यथावद्धिहितस्थितिः । गृहाश्रमी समीहेत शारीरेऽवसरे स्वयम् ॥३२६॥ संधानं पानकं धान्यं पुष्पं मूलं फलं दलम् । जीवयोनि न संग्राह्यं यह जीवैरुपद्रुतम् ॥३२७॥ 'अमिनं 'मिश्रमुत्सर्गि कालदेशदशाश्रयम् । वस्तु किञ्चित्परित्याज्यमपीहास्ति जिनागमे ॥३२८॥
यदन्तःशुषिरप्रायं हेयं नालीनलादि तत् । -... रोशनीपर इतने जीव मँडराते देखे जाते हैं कि जिनकी संख्याका अन्दाजा भी लगाना कठिन है। ऐसे समयमै रातमें खानेवाला कैसे उनसे बच सकता है ? उसके भोजनमें वे जीव बिना पड़े रह नहीं सकते। और इस तरह भोजनके साथ उनका भी भोजन हो जाता है। ऐसी स्थितिमें न तो अहिंसा व्रतकी ही रक्षा हो सकती है और न अष्ट मूलगुण ही रह सकते हैं। - रातके खानेमें केवल इतनी ही बुराई नहीं है । कभी-कभी तो विषेले जन्तुओंके संसर्गसे दूषित भोजनके कर लेनेपर जीवनका ही अन्त हो जाता है। जैसा कि एक बार लाहौरमें एक दावतमें चायके साथ छिपकलीके भी चुर जानेसे बहुत-से आदमी उसे पीकर बेहोश हो गये थे । यदि मकड़ी भोजनमें चली जाये तो कोढ़ पैदा कर देती है। यदि बालोंकी जू पेटमें चली जाये तो जलोदर रोग हो जाता है । अतः दिनमें सूर्यके प्रकाशमें ही भोजन करना चाहिए।
गृहस्थको चाहिए कि जो अपने आश्रित हों पहले उनको भोजन कराये पीछे स्वयं भोजन करे ॥३२६।। अचार, पानक, धान्य, फूल, मूल, फल और पत्तोंके जीवोंकी योनि होनेसे ग्रहण नहीं करना चाहिए । तथा जिसमें जीवोंका वास हो ऐसी वस्तु भी काममें नहीं लानी चाहिए ॥ ३२७॥
भावार्थ-अधिक दिनोंका मुरब्बा, अचार, मद्य और मांसके तुल्य हो जाता है अतः मर्यादाके भीतर ही उसका सेवन करना चाहिए । पेय भी सब ताजे और साफ होने चाहिए । अनाज धुना हुआ नहीं होना चाहिए और न इतना अन्न संग्रह ही करना चाहिए कि धुन लग जाये। फल, फूल, शाक-सब्जी वगैरह भी शोध कर ही काममें लाना चाहिए। गली सड़ी हुई या कीड़ा खायी सब्जी प्रत्येक दृष्टिसे अभक्ष्य है।
जिनागममें कोई वस्तु अकेली त्याज्य बतलायी है, कोई वस्तु किसीके साथ मिल जानेसे त्याज्य हो जाती है। कोई सर्वदा त्याज्य होती है और कोई अमुक काल, अमुक देश और अमुक दशामें त्याज्य होती है ॥३२८॥
अहिंसा पालनके लिए अन्य आवश्यक बातें जिसके बीचमें छिद्र रहते हैं ऐसे कमलडंडी वगैरह शाकोंको नहीं खाना चाहिए।
१. केवलम् । २. संयुक्तम् । ३. निरपवादम् । 'अमिनं मिश्रसंसगि।' -धर्मरत्ना०, पृ० ८५ उ० । 'जातिदुष्टं क्रियादुष्टं कालाश्रयविदूषितम् । संसर्गाश्रयदुष्टं च सहृल्लेखं स्वभावतः ॥' तथा'भावदुष्टं क्रियादुष्टं कालदुष्टं तथैव च । संसर्गदुष्टं च तथा वर्जयेद्यज्ञकर्मणि ॥' -बृद्ध हारीत-११, १२२-१२३ ॥ ४. 'सन्धानपानकफलं दलमूलपुष्पं जीवरुपद्रुतमपीह च जीवयोनिः । नालीनलादिसुषिरं च यवस्ति मध्ये यच्चाऽप्यनन्तमनुरूपमदः समुज्झ्यम् ॥ ४६॥' -धर्मरत्ना०, ५० ८५ उ० । 'नालीसूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्जयेत् । आजन्म तद्भुजां ह्यल्पं फलं घातश्च भूयसाम् ॥१६॥' -सागारधर्मा० ५ ० ।