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उपासकाध्ययम
जगन्नेत्रं पात्रं निखिलविषयज्ञानमहस
महान्तं त्वां सन्तं सकलनयनीतिस्मृतगुणम् । महोदारं सारं विनत हृदयानन्दविषये
ततो याचे नो चेद्भवसि भगवन्नर्थिविमुखः || ५१६|| मनुजदिविजलक्ष्मी लोचनालोकलीला - 3
चिरमिह चरितार्थास्त्वत्प्रसादात्प्रजाताः । हृदयमिदमिदानीं स्वामिसेवोत्सुकत्वात्
" सहवसतिसनाथं छात्रमित्रे विधेहि ||५६७॥ इत्युपासकाध्ययने स्तवनविधिर्नाम सप्तत्रिंशत्तमः कल्पः । ̈ सर्वाक्षरनामाक्षरमुख्याक्षराधे कंवर्णविन्यासात् । "निगिरन्ति जपं केचिदहं तु "सिद्धक्रमैरेव ॥ ५१८ || पातालमर्त्य खेचरसुरेषु सिद्धक्रमस्य मन्त्रस्य । "अधिगानात्संसिद्धेः "समवाये देवयात्रायाम् ॥५६६ ॥
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हे भगवन् ! आप जगत्के नेत्र हैं, समस्त पदार्थोंके ज्ञानरूपी तेजके स्थान हैं, महान् हैं, समस्त शास्त्रोंमें आपके गुणोंका स्मरण किया गया है, विनत मनुष्योंके हृदयोंको आनन्द देनेके विषयमें आप महान् उदार हैं अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। आशा है आप याचकसे विमुख नहीं होंगे अर्थात् मेरी प्रार्थना पूरी करेंगे || ५९६ ॥
भगवन् ! आपके प्रसादसे मानवीय और दैवीय लक्ष्मीके नेत्रोंके द्वारा मेरे देखे जाने की शोभा तो बहुत काल हुआ तभी चरितार्थ हो चुकी है। अब तो मेरा हृदय आपकी सेवा के लिए उत्सुक है इसलिए अब मेरे हृदयको अपने निवाससे सनाथ करो मेरे हृदय में बसो || ५६७ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें स्तवन विधि नामक सैंतीसवाँ कल्प समाप्त हुआ । [ अब जप करने की विधि बतलाते हैं - ]
जप विधि
कोई पंच परमेष्ठीके वाचक
कोई 'मो अरहंताणं' आदि पूरे नमस्कार मन्त्रसे जाप करना बतलाते हैं। कोई अरहन्त सिद्ध आदि पंच परमेष्ठी के नामाक्षरोंसे जप करना बतलाते हैं। 'अ सि आ उ सा' इन मुख्य अक्षरोंसे जप करना बतलाते हैं। कोई 'ओ' अथवा 'अ' आदि एक अक्षरसे जप करना बतलाते हैं, किन्तु मैं ( ग्रन्थकार ) तो अनादि सिद्ध पञ्चनमस्कार मन्त्र से ही जप करना बतलाता हूँ ||५||
पाताल लोकमें अर्थात् भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें, मनुष्यों में, विद्याधरोंमें, वैमानिक देवोंमें, जनसमाजमें और देवयात्रामें सिद्धिदायक होनेसे पश्ञ्चनमस्कारमन्त्रका सर्वत्र जति दर है ॥५६॥
१. तेजसां पात्रं स्थानम् । २. समस्तसिद्धान्तचिन्तितगुणम् । ३. शोभाः । ४. सत्यार्थाः ५. सह निवाससहितं मदीयं हृदयं कुरु । ६. छात्रा एव मित्राणि यस्य । ७. 'णमो अरहंताणं' इत्यादि पञ्चत्रिंशत् । ८. अरहंत सिद्ध इत्यादि । ९. असि आ उ सा । १०. ॐ अथवा अ । ११. कथयन्ति । १२. अनादिसं सिद्धपञ्चत्रिंशदक्षरैः । १३. अधिकप्रतिपत्तेः - आदरात् । अविगानात्' इत्यपि पाठः । अविगानात् - अविप्रतिपत्तेः । १४. समाजे - संघमेलापके । १५. तीर्थंकरपूजायाम् ।
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