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सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ६४६संयोगे विप्रलम्भे च निदाने परिदेवने । हिंसायामनृते स्तेये भोगरक्षासु तत्परे ॥६४६।। जन्तोरनन्तसंसारभ्रमैनोरथवर्मनी । 'आर्तरौद्रे त्यजेयाने दुरन्तफलदायिनी ॥६४७॥
पाठ है उसके अनुसार ध्यानी पुरुषको शास्त्रानुकूल वचनोंके सिवा अन्यत्र अपने वचनको वशमें रखना चाहिए । अर्थात् उसे शास्त्रानुकूल वचन व्यवहार करना चाहिए ॥६४५॥
भावार्थ-प्रिय और अप्रिय वस्तुकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें राग-द्वेषका नहीं होना धैर्य है । सब प्राणियोंमें द्वेषभावका न रखना मैत्री है। और अपनी तरह दूसरोंका भी हित करनेमें तत्पर रहना दया है । ध्यानीको सदा इन भावोंसे युक्त होना चाहिए।
___आत और रौद्रध्यानका स्वरूप तथा उनको त्यागनेका उपदेश
संयोग, वियोग, निदान, वेदना, हिंसा, झूठ, चोरी और भोगोंकी रक्षामें तत्परतासे होनेवाले आर्त और रौद्रध्यान बुरे फलोंको देनेवाले हैं और जीवको अनन्त संसारमें भ्रमण करानेवाले पापरूपी रथके मार्ग हैं । इनको त्याग देना चाहिए ॥ ६४६-६४७ ॥
भावार्थ-पहले ध्यानके तीन भेद बतलाकर आर्तध्यान और रौद्रध्यानको अशुभ ध्यान बतला आये हैं । यहाँ उन दोनों ध्यानोंका ही स्वरूप बतलाया है। आर्तध्यान चार प्रकारका होता है-एक, अनिष्ट वस्तुका संयोग हो जानेपर उससे छुटकारा पानेके लिए जो रात-दिन अनेक प्रकारके उपायोंका चिन्तन करना है उसे अनिष्टसंयोग नामका आर्तध्यान करते हैं । जैसे किसीको कुरूपा कुलटा पत्नी मिल गयी या कर्कशा पत्नी मिल गयी तो कैसे यह मरे या कैसे इससे पिण्ड छूटे इस प्रकारका निरन्तर चिन्तन करते रहना प्रथम आर्तध्यान है । यदि किसी अप्रिय वस्तुका संयोग हो जाये तो उससे बचनेके लिए रात-दिनका कलपना छोड़कर ऐसा प्रयत्नकरना चाहिए कि वह अपने अनुकूल हो जाये। दूसरा, इष्टवस्तुका वियोग हो जानेपर उसकी प्राप्तिके लिए जो रात-दिन चिन्तन करते रहना है उसे इष्टवियोग नामका आर्तध्यान कहते हैं। तीसरा, आगामी भोगोंकी प्राप्तिके लिए सतत चिन्ता करना निदान नामका आर्तध्यान है। चौथे, शरीरमें कोई पीड़ा हो जानेपर उसके दूर करनेके लिए जो रात-दिन चिन्तन करता है उसे वेदना नामका आर्तध्यान कहते हैं । आशय यह है कि किसी भी प्रकारको मानसिक वेदनासे पीड़ित होकर जो बुरे संकल्प-विकल्प किये जाते हैं वह सब आर्तध्यान हैं। दूसरा अशुभ ध्यान रौद्रध्यान है। इसके भी चार प्रकार हैं-पहला, दूसरोंको सतानेमें, उनकी जान लेनेमें आनन्द मानना हिंसानन्दी नामका रौद्रध्यान है। दूसरा, झूठ बोलनेमें आनन्द मानना मृषानन्दी नामका रौद्रध्यान है । तीसरा, चोरी करनेमें आनन्द अनुभव करना, चौर्यानन्दी नामका रौद्रध्यान है । चौथा, विषय-भोगकी सामग्रीका
१. वियोगे । २. वेदनायाम् । ३. भ्रमणे पापरथमार्गभूते । ४. 'आर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मतिसमन्वाहारः ॥ ३०॥ विपरीतं मनोज्ञस्य ॥ ३१ ॥ वेदनायाश्च ॥ ३२ ॥ निदानं च ॥ ३३ ॥ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥३४ ॥ हिसांनतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३५ ॥तत्त्वार्थसूत्र अ. ९ । ज्ञानार्णव पृ० २५६-२७१ ।