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उपासकाध्ययन प्रक्षीणोभयकर्माणं जन्मदोषैर्विवर्जितम् । लब्धास्मगुणमात्मानं मोक्षमाहुर्मनीषिणः ॥६६१॥
मार्गसत्रमनुप्रेक्षाः सप्ततत्त्वं जिनेश्वरम् । ध्यान वितर्क वीचार और पृथक्त्वसहित होता है। इसमें पृथक-पृथक् रूपसे श्रुतज्ञान और योग बदलता रहता है। इसलिए इसे पृथक्त्ववितर्क वीचार कहते हैं। पृथक्त्व अनेकपनेको कहते हैं। वितर्क श्रुतज्ञानको कहते हैं और वीचार ध्येय, वचन और योगके संक्रमणको कहते हैं। जिस शुक्लध्यानमें ये तीनों बातें होती हैं उसे पहला शुक्लध्यान जानना चाहिए। दूसरा शुक्लध्यान वितर्कसहित वीचाररहित अतएव एकत्वविशिष्ट होता है। इस ध्यानमें ध्यानी मुनि एक द्रव्य अथवा एक पर्यायको एक योगसे चिन्तन करता है। इसमें अर्थ, वचन और योगका संक्रमण नहीं होता । इस लिए इसे एकत्व वितर्क कहते हैं । इस ध्यानसे घातिकर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और ध्यानी मुनि सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है। उसके बाद भायु जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रहती है तब तीसरा शुक्लध्यान होता है। इसे करनेके लिए पहले केवली बादर काययोगमें स्थिर होकर बादर वचनयोग और वादर मनोयोगको सूक्ष्म करते हैं । फिर काययोगको छोड़कर वचनयोग और मनोयोगमें स्थिति करके बादर काययोगको सूक्ष्म करते हैं। पश्चात् सूक्ष्म काययोगमें स्थिति करके वचनयोग और मनोयोगका निग्रह करते हैं । तब सूक्ष्मक्रिय नामक ध्यानको करते हैं। इसके बाद अयोगकेवली गुणस्थानमें योगका अभाव हो जानेसे आस्रवका निरोध हो जाता है । उस समय वे अयोगी भगवान् समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यानको ध्याते हैं। इस ध्यानमें श्वासोच्छवासका संचार और समस्तयोग तथा आत्माके प्रदेशोंका हलन चलन
आदि क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं । इसलिए इसे समुच्छिन्नक्रिय या क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं । इसके प्रकट होनेपर अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समयमें कमों की ७२ प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं। अन्त समयमें बाकी बची १३ प्रकृतियाँ भी नष्ट हो जाती हैं और योगी सिद्धपरमेष्ठी बन जाता है।
मोक्षका स्वरूप [ शुक्लध्यानसे ही मोक्षको प्राप्ति होती है, अतः मोक्षका स्वरूप बतलाते हैं-] ___ जिसके द्रव्यकर्म और भावकर्म नष्ट हो गये हैं, अतएव जो जन्म, जरा, मृत्यु षादि दोषोंसे रहित है तथा अपने गुणों को प्राप्त कर चुका है उस आत्माको बुद्धिमान् मनुष्य मोक्ष कहते हैं॥६६१॥
भावार्थ-मोक्ष आत्माकी ही एक अवस्थाका नाम है। जो आत्मा कोंके बन्धनसे छुट चुका है वही मोक्ष है । मोक्ष शब्दका अर्थ छूटना होता है। जब आत्मा कोसे छूट जाता है तो उसके सब दोष हट जाते हैं। क्योंकि वे दोष कमोंके कारण ही उत्पन्न होते हैं। जब कारण नहीं रहा तो कार्य भी नहीं रहा । तथा दोषोंके कारण ही आत्माके स्वाभाविक गुण मलिन पड़ जाते हैं
और उनमें विकार पैदा हो जाता है। दोषोंके चले जानेसे आत्माके सब स्वाभाविक गुण चमक उठते हैं, जैसे सोनेमें-से मैलके निकल जानेपर सोना चमक उठता है । अतः कर्मोंसे मुक्त आत्माका नाम ही मोक्ष है।
किसका ध्यान करना चाहिए ? शास्त्रद्रष्टा ध्यानी पुरुषको 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस सूत्रका बारह