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सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ६१८अतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ॥८॥ तच्छासनकभक्तीनां सुहश सुव्रतात्मनाम् । स्वयमेव प्रसीदन्ति ताः पुंसां सपुरन्दराः ॥६६६॥ उतधामबद्धकक्षाणां रत्नत्रयमहीयसाम् । उभे कामदुधे स्यातां चावाभूमी मनोरथैः ॥७००॥
अतः पूजाका एक अंश देकर सम्यग्दृष्टियोंको उनका सम्मान करना चाहिए ॥ ६९८ ॥ जो व्रती सम्यग्दृष्टि जिनशासनमें अचल भक्ति रखते हैं उनपर वे व्यन्तरादिक देवता और उनके इन्द्र स्वयं ही प्रसन्न होते हैं ॥ ६९६ ॥ जो रत्नत्रयके धारक मोक्षधामकी प्राप्ति के लिए कमर कस चुके हैं, भूमि और आकाश दोनों ही उनके मनोरथोंको पूर्ण करते हैं ॥ ७०० ॥
भावार्थ-जिनशासनकी रक्षाके लिए शासन-देवताओंकी कल्पना की गयी है और इसलिए प्रतिष्ठापाठोंमें पूजाविधानके समय उनका भी सत्कार करना बतलाया है। किन्तु कुछ नासमझ लोग उनको ही सब कुछ समझ बैठते हैं और उनकी ही आराधना करने लग जाते हैं। जैसे आजकल अनेक स्थानोंमें पद्मावती देवीकी बड़ी मान्यता देखी जाती है । उनकी मूर्तिके मुकुटपर भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति विराजमान रहती है, क्योंकि उनके ही णमोकार मन्त्रके दानसे नाग-नागनी मरकर धरणेन्द्र-पद्मावती हुए थे। और जब भगवान् पार्श्वनाथके ऊपर कमठके जीव व्यन्तरने उपसर्ग किया तो दोनोंने पूर्व भवके उपकारको स्मरण करके भगवान्का उपसर्ग दूर किया था। अतः पद्मावतीकी मूर्तिके सामने भी कुछ लोग अष्ट द्रव्यसे पूजा करते हुए देखे जाते हैं। उनके आगे दीपक जलाते हैं, पद्मावती स्तोत्र पढ़ते हैं "भुज चारसे फल चार दो पदमावती माता' । उन नासमझ लोगोंको लक्ष्य करके ही ग्रन्थकारने बतलाया है कि जो इन देवी-देवताओंकी पूजा जिनेन्द्र भगवान्की तरह करते हैं उनका कल्याण नहीं हो सकता । यह तो वैसा ही है जैसा कोई किसी महाराजाके चपरासीकी ही महाराजाकी तरह आवभगत करने लगे। दूसरे, पद्मावती आदि देवता तो जिनशासनके भक्त हैं
और जिनशासनके भक्त वे इसलिए हैं कि उसकी आराधना करनेसे ही आज उन्हें वह पद प्राप्त हुआ है। अतः जो कोई जिनशासनका भक्त संकटग्रस्त होता है, धर्म-प्रेमवश वे उसकी सहायता करते हैं। वे अपनी स्तुतिसे प्रसन्न नहीं होते किन्तु अपने आराध्यकी आराधनासे स्वयं प्रसन्न होते हैं । अतः जो व्रती सम्यग्दृष्टि हैं वे उन देवताओंकी आराधना नहीं करते। इसीलिए पं० आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृतकी टीकामें लिखा है कि पहली प्रतिमाका धारक श्रावक जापत्ति आनेपर भी उसको दूर करनेके लिए कभी भी शासन-देवताओंकी आराधना नहीं करता, हाँ, पाक्षिक श्रावक भले ही ऐसा कर ले। अतः जो लोग केवल मोक्षकी अभिलाषा रखकर धर्माचरण करते हैं, उन्हें मोक्ष तो यथासमय प्राप्त होता ही है, किन्तु लौकिक वस्तुओंकी प्राप्ति भी
१. न तु जिनवत् स्नपनादिना। २. 'आपदाकुलितोऽपि दर्शनिकस्तनिवृत्त्यर्थ शासनदेवतादीन् कदाचिदपि न भजते । पाक्षिकस्तु भजत्यपोत्येवमर्थमेकग्रहणम्' ।-सागारधर्मामृत टीका अ. ३-७,८ श्लो. । 'तत्र क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितमनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणसहितं वीतरागसर्वज्ञदेवतास्वरूपमजानन् ख्यातिपूजालाभरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्तं रागद्वेषोपहतातरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवतामूढत्वं भण्यते ।'-द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा ४१ । ३. मोक्ष ।