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सोमदेव विरब्रित [कल्प ३६, श्लो०७२७ एकस्तम्भ नवारं पञ्चपञ्चजनाधितम् । अनेकक्षमेवेदं शरीरं योगिनां गृहम् ।।७२७॥ ध्यानामृतामतृप्तस्य क्षान्तियोषितस्य च । अत्रैव रमते चित्तं योगिनो योगबान्धवे ॥७२८।। रज्जुभिः कृष्यमाणः स्याद्यथा पारितवो हयः।। कृष्टस्तयेन्द्रियैरात्मा ध्याने लीयेत नक्षणम् ॥७२६।। रक्षा संहरणं सृष्टिं गोमुर्दामृतवर्षणम्। ..
विधाय चिन्तयेदाप्तमाप्तरूपधरः स्वयम् ।।७३०॥ नहीं हैं इसलिए निराकार है। अतः साकार होते हुए भी शरीरकी तरह अवयवविशिष्ट न होनेसे वह नष्ट नहीं होता और सर्वथा निराकार न होनेसे अदृश्य भी नहीं ठहरता।
यह शरीर ही योगियोंका घर है । यह घर एक आयुरूपी स्तम्भपर ठहरा हुआ है । इसमें नौ द्वार हैं-दोनों आँखोंके दो छिद्र, दोनों कानोंके दो छिद्र, नाकके दो छिद्र, मुखका एक छिद्र, और मल-मूत्र त्यागके दो छिद्र । पाँचों इन्द्रियरूपी मनुष्य इसमें वास करते हैं और यह अनेक कोठरियोंसे युक्त है ॥ ७२७ ॥ चूँकि यह शरीर योगका सहायक है इसलिए जो योगी ध्यानरूपी अन्न-जलसे सन्तुष्ट रहते हैं और क्षमारूपी स्त्रीमें आसक्त होते हैं उनका मन इसीमें रमता है, इससे बाहर नहीं जाता ॥ ७२८ ॥
_भावार्थ-बिना शरीरकी दृढ़ताके योगाभ्यास नहीं हो सकता। इसलिए शरीर योगका मित्र है । अतः योगी पुरुष अपने मनको उससे बाहर भटकने नहीं देते, उसीके नाभि आदि प्रदेशोंमें मनको स्थिर करके ध्यानमें लीन रहते हैं; किन्तु जो शरीरके मोहमें पड़कर उसीकी पुष्टिमें आसक्त हो जाते हैं वे योगका साधन नहीं कर सकते ।
जैसे रासके खींचनेसे घोड़ा चंचल हो जाता है वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा आकृष्ट आत्मा क्षणभर भी ध्यानमें लीन नहीं हो सकता । अतः ध्यानी पुरुषको इन्द्रियोंको वशमें रखना चाहिए, स्वयं उनके वशमें नहीं होना चाहिए ॥ ७२९ ॥
रक्षा, संहार, सृष्टि, गोमुद्रा और अमृतवृष्टिको करके स्वयं आप्त स्वरूपधारी मनुष्यको आप्तके स्वरूपका ध्यान करना चाहिए ॥ ७३०॥
विशेषार्थ-धर्मध्यानके संस्थानविचय नामक भेदके भी चार अवान्तर भेद हैं-पिण्डस्थ पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । पिण्डस्थध्यानमें पाँच धारणाएँ होती हैं-पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्त्वरूपवती । पार्थिव धारणाका स्वरूप इस प्रकार है-प्रथम ही योगी निःशब्द, तरंगरहित क्षीरसमुद्रका ध्यान करता है। उसके मध्यमें एक सुनहरे रंगके सहस्रदल कमलका ध्यान करता है । फिर उस कमलके मध्यमें मेरुके समान एक कर्णिकाका ध्यान करता
१. आयुषा धृतम् । २. छिद्रम् । ३. पञ्चेन्द्रियाणि एव पञ्चजनाः मनुष्यास्तैराश्रितम् । ४. नाभिकमलब्रह्मरन्ध्रादिभेदेन । ५. आसक्तस्य । 'ध्यानामतान्नतप्तानां मैत्रीरामामुपेयुषाम् । तत्रैव रमते स्वान्तं तत्त्वविद्यारसाथिनाम्' ॥-प्रबोधसार ।।२१९।। ६. चञ्चलः । ७. सकलीकरणे यथापूर्व शरीररक्षा क्रियते पश्चादग्नितत्त्वे दहनलक्षणं संहरणं चन्द्राद् वरुणमण्डलात् अमृतवर्षेण सृष्टिम् । ८. सुरभिमुद्रा ।