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उपासकाम्ययन
२८५ यस्यां पायमसंकृतियुग्मयोन्यं लोकत्रयाम्बुजसरः प्रविहारहारि। तां वाग्विलासवसति सलिलेन देवीं सेवे कवियुस्मन्टनकाल्पवतीम् ॥७३८॥
(शात तोयम् ) यामन्तरेण सकलार्थसमर्थनोऽपि योधोऽवकेशितरुषत्र फलार्थिसेव्यः। सोऽत्यल्पवेचपि ययानुगतरित्रलोक्याऽऽसेव्यः सुररिव तं प्रयजेय गन्धैः ।।७३६॥
(इति गन्धम् ) या स्वल्पंषस्तुरचनापि मिर्तप्रवृत्तिः संस्कारतो भवति तद्विपरीतले कमीः। स्वर्वल्लरीवनलसेव सुधानुबन्धातामद्धतस्थितिमहं सबकैः श्रयामि ॥७४०||
(इत्यक्षतम् )
[अब अष्ट द्रव्यसे शास्त्रका पूजन कहते हैं-]
जिसके सुबन्त और तिङन्तरूप अथवा शब्द और धातुरूप दोनों पद ( चरण ) शब्दालंकार और अर्थालंकारके योग्य हैं, तथा तीनों लोकरूपी कमलसरोवरमें विचरण करनेसे मनोहर हैं उस कविरूपी कल्पवृक्षोंको शोभित करनेके लिए कल्पलताके तुल्य सरस्वती देवीको मैं जलसे पूजता हूँ ॥७३८॥
भावार्थ-जिनवाणी सरस्वती देवी है, उसके दो चरण हैं-एक शब्दरूप और एक धातुरूप, उन दोनोंके मेलसे ही तो वाणीकी रचना होती है जैसे-'मुनि जाते हैं।' यहाँ 'मुनि' शब्दरूप पद है और 'जाते हैं' धातुरूप पद हैं। ये दोनों पद दो अलंकारों (आभूषणों) से युक्त होते हैं। उनमें से एकका नाम शब्दालंकार है और दूसरेका नाम अर्थालंकार है । तथा सरस्वती कवियोंका भूषण होती है।
जिसके बिना समस्त पदार्थोंका समर्थन करनेवाला भी ज्ञान फलहीन वृक्षकी तरह फलार्थी पुरुषोंके द्वारा सेवनीय नहीं होता, और जिसका अनुसरण करनेवाला अत्यन्त अल्पज्ञानी भी मनुष्य कल्पवृक्षकी तरह तीनों लोकोंसे पूजित होता है, उस जिनवाणीको मैं गन्धसे पूजता हूँ ॥७३॥
भावार्थ-जिनवाणी स्व और परका ज्ञान कराकर जीवोंको हितम लगाती है और अहितसे बचाती है । अतः हिताहितके विवेकसे रहित बहुत ज्ञान भी मोक्षाभिलाषियोंके लिए बेकार है । और हिताहितके विवेकसे युक्त अल्पज्ञान भी पूजनीय है; क्योंकि उसीके द्वारा जीव सिद्ध-बुद्ध बनकर त्रिलोकपूजित होता है। . .
जिस जिनवाणीके संस्कारवश अल्प अर्थवाली और अल्प शब्दवाली रचना भी महान् अर्थशाली और महाशब्दवाली हो जाती है, जैसे अमृतके सिञ्चनसे वनकी लता भी कल्पलता हो जाती है । उस अद्भुत स्थितिवाली जिनवाणीको मैं अक्षतसे पूजता हूँ ॥७४०॥
१ शब्दालङ्कार-अर्थालङ्कार । २. कविरेव कल्पतरुस्तस्यालङ्करणे । ३. वन्ध्यवृक्षवत् । ४. नरः । ५. वाण्या। ६. सुरद्रुम इव । ७. अल्पार्थाऽपि। ८. अल्पशब्दसहिताऽपि । ९. अभ्यासवशात् । १०. अमितावहा।