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सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो०७६ मन्त्रोऽयं स्मृतिधाराभिश्चित्तं यस्याभिवर्षति । तस्य सर्वे प्रशाम्यन्ति तुद्रोपद्रवपांसवः ॥७०६॥ अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । भवत्येतस्मृतिर्जन्तुरास्पदं सर्वसंपदाम् ॥७०७॥
यह मन्त्र जिसके चित्तमें स्मृतिरूपी धाराओंके द्वारा बरसता है अर्थात् जो बारम्बर अपने चित्तमें इस मन्त्रका स्मरण करता है, उसके छोटे-मोटे सब उपद्रवरूपी धूल शान्त हो जाती है ।। ७०६ ॥ अपवित्र या पवित्र, ठीक तरहसे स्थित या दुःस्थित जो प्राणी इस मन्त्रका स्मरण करता है उसे सब सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं ॥ ७०७ ॥
भावार्थ-जपमें और ध्यानमें अन्तर है। मन्त्रका जप तो स्वाध्यायमें गर्मित है, किन्तु ध्यान उससे भिन्न है । यद्यपि जप भी ध्यानकी ओर ले जानेवाला है। मोक्षके जो कारण बतलाये गये हैं उनमें भी ध्यान ही प्रधान है । अतः शास्त्रकारोंने मुमुक्षुके लिए ध्यानाभ्यासपर विशेष जोर दिया है। मनके एकाग्र करनेका नाम ध्यान है। मनकी एकाग्रता सांसारिक इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, हिंसा, चोरी आदि कामोंमें भी देखी जाती है। ऐसी एकाग्रता दुर्ध्यान कहलाती है । अतः ध्यानके चार भेदोंमें-से आर्त और रौद्रध्यानको संसारका कारण कहा है और धर्म तथा शुक्लध्यानको मोक्षका कारण कहा है। इनमें से शुक्लध्यान तो आज-कल होना संभव नहीं है क्योंकि शुक्लध्यान आठवें आदि गुणस्थानवर्ती मुनियोंके ही होता है और आज-कल सातवें गुणस्थानसे आगे होना संभव नहीं है क्योंकि न तो आज-कल वैसा संहनन होना संभव है और उतना ज्ञान ही होना संभव है। केवल धर्मध्यान ही आजकल हो सकता है। और उसीका विशेष वर्णन उपासकाध्ययनमें, ज्ञानार्णवमें तथा तत्वानुशासन आदि ग्रन्थों में पाया जाता है । धर्मध्यानके लिए भी अभ्यासकी आवश्यकता है।
ध्यानका स्थान बहुत शान्त और एकान्त होना चाहिए, जहाँ किसी प्रकारका विघ्न उपस्थित होनेकी आशंका न हो । ऐसे स्थानमें जमीनपर या शिला वगैरहपर सुखासनसे बैठकर या कायोत्सर्ग मुद्रामें खड़े होकर, अपनी दृष्टिको नाकके अग्रभागपर स्थित करके, और शरीरको सीधा सरल रूपसे निश्चल करके, मन्द-मन्द श्वासोच्छ्वासपूर्वक अपने मनको ध्येयमें एकाग्र करना चाहिए और अन्तरंगकी विशुद्धिके लिए स्वरूप या पररूपका चिन्तन करना चाहिए। ध्यान भी निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका है। स्वरूपके ध्यानको निश्चय और पररूपके ध्यानको व्यवहार कहते हैं। व्यवहार निश्चयका साधक है अतः पहले व्यवहार ध्यानका ही अभ्यास करना आवश्यक है। पहले जो आज्ञाविचय, अपायविचय, संस्थानविचय और विपाकविचय नामके धर्मध्यान बतलाये हैं उनका चिन्तन करना चाहिए। उनके सिवा भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे ध्येय (ध्यान करनेके योग्य) के चार भेद कहे हैं। अपने हृदयमें चार पांखुडीका कमल कल्पित करके और उसकी कणिका तथा चारों पत्रोंपर क्रमसे पंचपरमेष्ठीके वाचक अ सि आ उ सा मन्त्रका ध्यान करना या इसी प्रकारके अन्य मन्त्रोंका ध्यान करना यह नामध्येय है । जिनेन्द्र बिम्बका ध्यान करना स्थापना ध्येय है। यथार्थमें तो पाँचों परमेष्ठीका ध्यान करनेके योग्य है । अर्हन्त आदिका जैसा स्वरूप शास्त्रोंमें बतलाया है वैसा ही अपने मनमें