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[ कल्प ३१, श्लो० ६६२
सोमदेव विरचित
ध्यायेदागमचक्षुष्मान्प्रसंख्यानपरायणः ॥६६२॥ जाने तत्त्वं यथैतियं श्रद्दधे तदनन्यधीः । मुचेऽहं सर्वमारम्भमात्मन्यात्मानमादधे ॥ ६६३॥ आत्मायं बोधिसंपत्तेरात्मन्यात्मानमात्मना । यदा सूते तदात्मानं लभते परमात्मना ॥ ६६४॥ ध्यातात्मा ध्येयमात्मैव ध्यानमात्मा फलं तथा । आत्मा रत्नत्रयात्मोक्तो यथायुक्तिपरिग्रहः ॥ ६६५॥ सुखामृतसुधासूतिस्तद्रवेरुदयाचलः । परं ब्रह्माहमंत्री से तमःपाशवशीकृतः ॥६६६॥ यदा चकास्ति मे चेतस्तद्धयानोदयगोचरम् । तदाहं जगतां चक्षुः स्यामादित्य इवातमाः ॥ ६६७॥ श्रादौ मध्वमधु प्रान्ते सर्वमिन्द्रियजं सुखम् । प्रातः स्नायिषु हेमन्ते तोयमुष्णमिवाङ्गिषु ॥ ६६८॥ यो दुरामदुर्हशोबद्धग्रासो यमो ऽङ्गिनि । स्वभावसुभगे तस्य स्पृहा केन निवार्यते ॥ ६६६॥
अनुप्रेक्षाओं का, सात तत्त्वोंका और जिनेन्द्र भगवान् का ध्यान करना चाहिए || ६६२ ॥ ध्यानीको क्या विचार करना चाहिए
मैं आगमानुसार तत्वोंको जानता हूँ और एकाग्र मन होकर उनका श्रद्धान करता हूँ । तथा समस्त आरम्भको छोड़ता हूँ और अपनेमें अपनेको लगाता हूँ || ६६३ || जब यह ज्ञानरूप सम्पत्तिका स्वामी आत्मा आत्मासे आत्मा में आत्माको ध्यान करता है तब आत्माको परमात्मरूपसे पाता है ॥ ६६४ ॥ आत्मा ध्यान करनेवाला है, आत्मा ही ध्येय है, आत्मा ही ध्यान है और रत्नत्रयमयी आत्मा ही ध्यानका फल है । अर्थात् ध्याता ध्यान, ध्येय और उसका फल ये सब आत्मस्वरूप ही पड़ते हैं । युक्ति के अनुसार उसको ग्रहण करना चाहिए ॥ ६६५ ॥
मैं सुखरूपी अमृतके लिए चन्द्रमा हूँ। तथा सुखरूपी सूर्यके लिए उदयाचल हूँ । अर्थात् सुख आत्माकी ही वस्तु है, उसीसे वह उत्पन्न होता है । मैं परब्रह्म स्वरूप हूँ किन्तु अज्ञानान्धकाररूपी जाल में फँसकर इस शरीर में ठहरा हुआ हूँ || ६६६ ॥ जब मेरे चित्तमें उस ध्यानका उदय होगा तब मैं अन्धकाररहित सूर्यके समान संसारका दृष्टा हो जाऊँगा ||६६७॥
जितना भी इन्द्रियजन्य सुख है, वह प्रारम्भ में मीठा प्रतीत होता है किन्तु अन्तमें कटुक लगता है । जैसे जो लोग शीतऋतु में प्रातः स्नान करते हैं उन्हें पानी उष्ण प्रतीत होता है ॥ ६६८ ॥
जो यमराज रोग से ग्रस्त और देखने में असुन्दर प्राणीको खानेके लिए तैयार रहता है, स्वभावसे ही सुन्दर मनुष्यमें उसकी रुचिको कौन हटा सकता है ? अर्थात् वह सुन्दर मनुष्यको छोड़ नहीं देता है किन्तु उसे भी खा जाता है || ६६६ ॥
१. ध्यानतत्परः । २. अहम् । ३. एकाग्रचित्तः । ४ जनयति ध्यायति वा । ५. सुखसूर्यस्य । ६. देहे तिष्ठामि ।