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उपासकाम्ययन
२६६ जन्मयौवनसंयोगसुखानि यदि देहिनाम् । निर्विपक्षाणि को नाम सुधीः संसारमुत्सृजेत् ॥६७०॥ अनुयाचेत नायूंषि नापि मृत्युमुपाहरेत् । भृतो भृत्य इवासीत कालावधिमविस्मरन् ॥६७१॥ महाभागोऽहमद्यास्मि यत्तत्त्वचितेजसा । सुविशुद्धान्तरात्मासे तमःपारे प्रतिष्ठितः ॥६७२॥. तनास्ति यदहं लोके सुखं दुःखं च नाप्तवान् ।। स्वप्नेऽपि न मया प्राप्तो जैनागमसुधारसः ॥६७३॥ सम्यगेतत्सुधाम्भोधेबिन्दुमप्यालिहन्मुहुः । जन्तुर्न जातु जायेत जन्मज्वलनभाजनः ॥६७४॥ देवं देवसभासीनं पञ्चकल्याणनायकम् । चतुनिशद्गुणोपेतं प्रातिहार्योपशोभितम् ॥६७५॥ निरञ्जनं जिनाधीशं परमं रमयाश्रितम् ।।
अच्युतं च्युतदोषौघमभवं भवभृद्गुरुम् ॥६७६॥ यदि प्राणियोंके जन्म, यौवन, संयोग और सुखके विपक्षी मृत्यु, बुढ़ापा, वियोग और दुःख न होते तो कौन बुद्धिमान् संसारको छोड़ता ? ॥ ६७० ॥ अतः न तो आयुकी याचना करना चाहिए कि मैं और अधिक दिनों तक जीता रहूँ, और न मृत्युको बुलाना चाहिए कि मैं जल्दी मर जाऊँ । किन्तु अपने जीवनकी अवधिको न भूलकर वेतनपानेवाले नौकरकी तरह रहना चाहिए ॥ ६७१ ॥ आज मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ; क्योंकि तत्त्वरुचिरूपी तेजसे मेरा अन्तरात्मा सुविशुद्ध हो गया है और मैं मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको पार कर चुका हूँ ॥ ६७२ ॥ संसारमें ऐसा कोई सुख और दुःख नहीं है जो मैंने नहीं भोगा। किन्तु जैनागमरूपी अमृतका पान मैंने स्वप्नमें भी नहीं किया ॥ ६७३ ।। इस अमृतके सागरको एक बूँदको भी जो चख लेता है वह प्राणी फिर कभी भी जन्मरूपी अग्निका पात्र नहीं बनता अर्थात् जैनशास्त्रोंका थोड़ा-सा भी स्वाद जिसे लग जाता है वह उनका आलोडन करके उस शाश्वत सुखको प्राप्त कर लेता है और फिर उसे संसारमें भ्रमण करना नहीं पड़ता।
[अब अर्हन्तदेवका ध्यान करनेकी प्रेरणा करते हैं-] ___ समवसरणमें विराजमान, पाँच कल्याणकोंके नायक, चौंतीस अतिशयोंसे युक्त, आठ प्रातिहार्योंसे सुशोभित, घातियाकर्मरूपी मलसे रहित, उत्कृष्ट अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीसे वेष्टित, जिनश्रेष्ठ, आत्मस्वरूपसे कभी च्युत न होनेवाले, दोषसमूहसे रहित, संसारातीत किन्तु संसारी प्राणियोंके गुरु, स्वयं सबके द्वारा स्तुति करनेके योग्य किन्तु जिनके लिए कोई भी स्तुति-योग्य
१. 'चतुस्त्रिशन्महाश्चर्यः प्रातिहार्यश्च भूषितम् । मुनितिर्यङ्नरस्वर्गिसभाभिः सन्निषेवितम् ।।१२५।। जम्माभिषेकप्रमुखप्राप्तपूजातिशायिनम् । केवलज्ञाननिर्णीतवस्तुतत्त्वोपदेशिनम् ॥ १२६ ॥'-तत्त्वानुशासन । ज्ञानार्णव २९वां प्रकरण। चतुस्त्रिशद्गुणोपेतम्-निःस्वेदत्वादयो दश सहजाः। गव्यूतिशतचतुष्टयं सुभिक्षादयो घातिक्षयजा दश, अर्धमागधीभाषादयो देवोपनीताश्चतुर्दश । २. जनाधी-अ. ज.।