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उपासकाध्ययन अतावकगुणं सर्व त्वं सर्वगुणभाजनः । त्वं सृष्टिः सर्वकामानां' कामसृष्टिनिमीलनः ॥६८५॥ बसुप्तदीपनिर्वाणेप्राकृते वा त्वयि स्फुटम् । बसुप्तेदीपनिर्वाणं प्राकृतं स्याजगत्त्रयम् ॥६८६॥ प्रयीमार्ग त्रयीरूपं त्रयीमुक्तं त्रयीपतिम् । प्रयीव्याप्तं त्रयीतत्त्वं"प्रयीचूडामणिस्थितम् ॥६८७॥ जगतां कौमुदीचन्द्रं कामकल्पावनीरुहम् । गुणचिन्तामणिक्षेत्रं कल्याणागमनाकरम् ॥६८८॥ प्रणिधानप्रदीपेषु साक्षादिव चकासतम् । ध्यायेजगत्त्रयाहिमर्हन्तं सर्वतोमुखम् ॥६६॥ पाहुस्तस्मात्परं ब्रह्म तस्मादैन्द्रं पदं करे। इमास्तस्मादयत्नाप्यो श्चक्राका क्षितिपभियः ॥६६०॥ यं यमध्यात्ममार्गेषु भावमस्मयमत्सराः। तत्पदाय दधत्यन्तः स स तत्रैव लीयते ॥६६१॥
मनुष्यकी तरह मानागया है क्योंकि मुक्तावस्थामें ज्ञान नहीं रहता, बौद्ध मतमें दीपकके निर्वाणकी तरह आत्माका निर्वाण माना गया है किन्तु अर्हन्त भगवान्में तीनों प्रकारके निर्वाण अपने प्राकृत स्वरूपमें विद्यमान हैं। राग-द्वेष और मोहसे रहित होनेके कारण वे प्रायः आकाशकी तरह शून्य है, ध्यानमें लीन होनेके कारण सुप्त हैं और दीपकी तरह केवलज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थोके प्रकाशक हैं, रत्नत्रय जिनका मार्ग है, सत्ता, सुख और चैतन्यसे विशिष्ट होनेके कारण जो त्रयीरूप हैं, राग-द्वेष और मोहसे मुक्त हैं, स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोकके स्वामी हैं, तीनों लोकोंको जान लेनेके कारण तीनों लोकोंमें व्याप्त हैं, अथवा सदा रहनेसे तीनों कालोंमें व्याप्त हैं, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त हैं, तीनों लोकोंके शिखरपर विराजमान हैं तथा जगत्के लिए पूर्णिमासीके चन्द्रमा हैं, इच्छित वस्तुके लिए कल्पवृक्ष हैं, गुणरूपी चिन्तामणिके स्थान, कल्याणकी प्राप्तिके लिए खनि, तीनों लोकोंसे पूजनीय और ध्यानरूपी दीपकोंके प्रकाशमें साक्षात् चमकनेवाले अर्हन्त भगवान्का ध्यान करना चाहिए ॥ ६७४-६८९ ॥
उन अर्हन्तका ध्यान करनेसे परब्रह्मकी प्राप्ति होती है, उनका ध्यान करनेसे इन्द्रपद तो हाथमें ही समझना चाहिए। तथा चक्रवर्तीकी विभूति भी बिना प्रयत्नके प्राप्त हो जाती है ॥ ६१०॥ मान और ईर्षासे रहित पुरुष अध्यात्म-मार्गमें अपने अन्तःकरणमें अर्हन्तपदकी
१. यत्तु वस्तु तत्सर्व तावकगुणं त्वत्स्वरूपं न । २. वाञ्छितवस्तूनाम् । ३. संकोचनः । ४. अलोकिके। ५. खनिर्वाणं वैशेषिकाणां ज्ञानाद्यमावाभ्युपगमात् । सुप्तनिर्वाणं सांख्यानां चित्तमात्राभ्युपगमात् । दीपनिर्वाणं बौद्धानां निरन्वयविनाशाम्युपगमात् । ६. रत्नत्रयं मार्गो यस्य । ७. रत्नत्रयरूपम् । अथवा सत्ता सुखचैतन्यरूपम् । ८. रागद्वेषमोहरहितम् अथवा जातिजरामरणमुक्तम् । ९. जगत्त्रयपतिम् । १०. कालत्रयव्या.प्तम् । ११. उत्पादव्ययधोव्यमेवं तत्त्वं यस्य । १२. ध्यान । १३. सर्वतो सुखम्-अ. ज.। १४. प्राप्याः । "प्राहस्तस्मात्परं ब्रह्म तस्मादन्द्रपदोद्रयः। तस्मादपि लम्यन्ते शर्मदाः सर्वसम्पदः ।।२०५॥"-प्रबोधसार ।