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सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ६५३ स संसारार्णवे मजजन्स्वालम्बः कथं भवेत् ॥६५॥
(इत्याज्ञा) अहो 'मिथ्यातमः पुसा युक्तिद्योतैः (ते) स्फुरत्यपि । यदन्धयति चेतांसि रत्नत्रयपरिग्रहे ॥६५४।। श्राशास्महे तदेतेषां दिनं यत्रास्तकल्मषाः । इदमेते प्रपश्यन्ति तत्त्वं दुःखनिबहेणम् ।।६५५।।
(इत्यपायः) ही श्रेष्ठ समझा जाता है और उसमें जो कुछ कहा गया है वह ठीक माना जाता है । किन्तु जो आगम हमारे सरीखे अल्पज्ञानियोंके विचारोंकी कसौटीपर भी खरा नहीं उतरता, वह संसाररूपी समुद्रमें डूबते हुए जीवोंका सहारा कैसे हो सकता है ॥ ६५२-६५३ ॥
भावार्थ-धर्मयुक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं । उस ध्यानके कई एक बाधक कारण हैं। कभी-कभी तो ध्यानी आत्माके स्वरूपको ठीक-ठीक जानता हुआ भी मोहके उदयसे या अभ्यास न होनेसे आत्मस्वरूपमें अपनेको स्थिर नहीं कर पाता । कभी अज्ञानके वशीभूत होनेके कारण ध्यानीका मन प्रयत्न करनेपर भी अपनेमें स्थिर नहीं हो पाता । इन बाधक कारणोंको दूर करनेके लिए यह आवश्यक है कि वस्तुका यथार्थ स्वरूप जाना जाये। जिससे मोह और अज्ञानका पर्दा हटकर आत्मा परमात्म स्वरूपमें स्थिर हो सके । असलमें दृश्यवस्तुके सम्बन्धसे अदृश्य वस्तुका ध्यान करना बतलाया गया है। किन्तु परमात्मा तो अर्हन्त और सिद्ध परमेष्ठी हैं। अल्पज्ञानीके लिए वे अदृश्य हैं। अपना स्वरूप यद्यपि उनके समान बतलाया है किन्तु वह शक्तिरूप है, व्यक्तिरूप नहीं है इसलिए छद्मस्थके लिए वह भी अगोचर है । छद्मस्थ तो अपने क्षायोपशमिक ज्ञानका उपयोग कर सकता है । अतः क्षायोपशमिक ज्ञानके द्वारा सर्वज्ञ भगवान्के द्वारा प्रतिपादित परमागमसे परमात्माके स्वरूपका निश्चय करके परमात्माका ध्यान करना चाहिए । इसीसे परमात्म-पदकी प्राप्ति होती है । जिस ध्यानमें जैन सिद्धान्तमें प्रतिपादित वस्तुस्वरूपका चिन्तन सर्वज्ञ भगवानको प्रमाण मानकर-उनकी आज्ञाको ही प्रधान करके किया जाता है, उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं। चूंकि छद्मस्थका क्षापोपशमिक ज्ञान सर्वज्ञप्रतिपादित वस्तुस्वरूपका निर्णय स्वयं जानकर तो कर नहीं सकता । अतः वह 'जिनेन्द्र भगवान् वीतराग हैं अतः वह अन्यथा नहीं कह सकते' यह मानकर ही परमागममें प्रतिपादित वस्तुस्वरूपका ध्यान करता है । चूँकि इस ध्यानमें आज्ञाकी प्रधानता रहती है इस लिए उसे आज्ञाविचय कहते हैं।
अपायविचयका स्वरूप आश्चर्य है कि युक्तिरूपी प्रकाशके फैले रहते भी मिथ्यात्वरूपी अन्धकार रत्नत्रयको ग्रहण करनेमें मनुष्योंके चित्तोंको अन्धा बनाता है। हम उस दिनकी आशा करते हैं जब ये मनुष्य पापोंको दूर करके दुःखोंसे छुड़ानेवाले तत्त्वको देख सकेंगे ॥ ६५४-६५५ ॥
१. जात्यन्धवन्मिथ्यादृष्टयः सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद् विमुखा मोक्षार्थिनः सम्यङ्मार्गापरिज्ञानात्सुदूरमेवा. पन्तीति सन्मार्गापायचिन्तनमपायविचयः। अथवा मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मतिसमन्वाहारोऽपायविचयः-सर्वार्थसिद्धि ९-३६ । ज्ञानाणंव ३४वां प्रकरण ।