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-६५२] उपासकाध्ययन
२६३ बोध्यागमकपाटे ते मुक्तिमार्गार्गले परे । सोपाने श्वभ्रलोकस्य तरवेक्षावृतिपक्ष्मणी ॥६४८॥ लेशतोऽपि मनो यावदेते समधितिष्ठतः। एष जन्मतरुस्तावदुच्चैः समधिरोहति ।।६४६॥ ज्वलन्नजनमाधत्ते प्रदीपो न रविः पुनः । तथाशयविशेषेण ध्यानमारभते फलम् ॥६५०।। प्रेमाणनयनितेपैः सानुयोगैर्विशुद्धधीः। मतिं तनोति तत्त्वेषु धर्मध्यानपरायणः ॥६५१॥ 'अरहस्ये यथा लोके सती काञ्चनकर्मणी । अरहस्यं तथेच्छन्ति सुधियः परमागमम् ॥६५२॥
यः स्खलत्यल्पबोधानां विचारेष्वपि मादृशाम्। संचय करनेमें आनन्द मानना विषयानन्दी नामका रौद्रध्यान है । ये दोनों ही प्रकारके ध्यान नहीं करने चाहिए। क्योंकि
ये दोनों अशुभ ध्यान ज्ञानकी प्राप्तिको रोकनेके लिए किवाड़के तुल्य हैं, मुक्तिके मार्गको बन्द करनेके लिए सांकलके तुल्य हैं, नरकलोकमें उतरनेके लिए सीढ़ीके तुल्य हैं और तत्त्वदृष्टिको ढाँकनेके लिए पलकोंके समान हैं ॥ ६४८ ॥ जब तक मनमें ये दोनों अशुभ ध्यान लेशमात्र भी रहते हैं तब तक यह जन्मरूपी वृक्ष बराबर ऊँचा होता जाता है । अर्थात् इन दोनों ध्यानोंके रहते हुए जन्म-मरणरूपी संसारचक्रका अन्त नहीं हो सकता बल्कि वह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है ।। ६४९ ॥ ___जैसे दीपक भी जलता है और सूर्य भी जलता है। किन्तु दीपकके जलनेसे काजल बनता है, सूर्यसे नहीं । वैसे ही ध्यान भी ध्यान करनेवालेके अच्छे या बुरे भावोंके अनुसार ही अच्छा या बुरा फल देता है ॥ ६५० ॥
[अब धर्मध्यानका वर्णन करते हैं-]..
जो निर्मल बुद्धि मनुष्य धर्मध्यान करता है वह प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोगद्वारोंके साथ तत्त्वोंका चिन्तन करनेमें मनको लगाता है ॥ ६५१ ॥
[धर्मध्यानके चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, लोक या संस्थानविचय और विपाकविचय । इनमेंसे प्रत्येकका स्वरूप बतलाते हैं-]
आज्ञाविचयका स्वरूप जैसे संसारमें सोनेमें दो काम खुले रूपमें होते हैं-एक, उसे कसौटीपर कसा जाता हैदूसरे, उसे छैनीसे काटकर देखा जाता है। इन दो कामोंसे सोनेकी पहचान भलीभाँति हो जाती है। वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्य परमागमको भी गूढ़तारहित ही पसन्द करते हैं। आशय यह हैं कि सोनेकी तरह परमागम भी ऐसा होना चाहिए जिसे सत्यकी कसौटीपर कसा जा सके । ऐसा परमागम
१. 'प्रमाणनयनिक्षेपनिर्णीतं तत्वमञ्जसा । स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतं चिदचिल्लक्षणं स्मरेत् ॥८॥ ज्ञानार्णव पृ०३३८ । २. अगूढे । ३. विद्यमाने भवतः । ४. सुवर्णस्य द्वे कर्मणी कषछेदलक्षणे। ५. प्रकटार्थम् । ६. परकीय आगमः । 'निःशेषनयनिक्षेपनिकषग्रावसन्निभम् । स्याद्वादपविनिर्घातभग्नान्यमतभूधरम् ॥ १७ ॥'-ज्ञानार्णव पृ. ३३९ ।
धर्मध्यान