________________
२५३
उपासकाध्ययन यदेन्द्रियाणि पञ्चापि स्वात्मस्थानि समासते। तदा ज्योतिः स्फुरत्यन्तधि विते निमजति ॥३१॥ चित्तस्यकाग्रता ध्यानं ध्यातात्मा तत्फलप्रभुः। ध्येयमात्मार्गमज्योतिस्तद्विधिदेहयातना ॥६१६॥ तैरश्चमामरं मायं नामसं भौममङ्गजम् । 'सहतु समधीः सर्वमन्तरायं यातिगः ॥६१७॥ नातमित्वमविघ्नाय न तीवत्वममृत्यवे । तस्मादतिश्यमानात्मा परं ब्रह्मैव चिन्तयेत् ॥६१८॥
यत्रायमिन्द्रियग्रामो"व्यासगस्तेनावविप्लवम् । नाश्नुवीत तमुहेशं भजेताध्यात्मसिद्धये ॥६१६॥
मूर्ति है ॥६१४॥ जब पाँचों इन्द्रियाँ बाह्य व्यापारको छोड़कर आत्मस्थ हो जाती हैं और चित्त अन्तरात्माम लीन हो जाता है तब अन्तरात्मा ज्योतिका उदय होता है ॥६१५।।
ध्यान आदिका स्वरूप चित्तकी एकाग्रताको ध्यान कहते हैं । आत्मा ध्याता यानी ध्यान करनेवाला है। वही ध्यानके फलका स्वामी है । आत्मा और श्रुतज्ञान ध्येय हैं, ध्यानमें उन्हींका चिन्तन किया जाता है और शरीर तथा इन्द्रियोंपर काबू रखना ध्यानका उपाय है ॥६१६॥
___ ध्यान करते समय यदि कोई पशुकृत उपसर्ग उपस्थित हो जैसे सुकुमाल मुनिपर शृगालीने किया था, या देवकृत उपसर्ग उपस्थित हो, जैसे भगवान पार्श्वनाथके ऊपर कमठके जीव व्यन्तरने किया था, या मनुष्यकृत उपसर्ग उपस्थित हो जैसे पाण्डवोंपर उनके शत्रुओंने किया था, या आकाशसे अचानक बिजली, पानी और ओला बरसने लगे, या जमीन चुभने लगे अथवा शरीरमें ही कोई पीड़ा उत्पन्न हो जाये तो ध्यानी पुरुषको राग-द्वेष न करके सब प्रकारकी बाधाओंको शान्तिपूर्वक सहना चाहिए ॥६१७|| ऐसे समय असहनशीलता दिखानेसे विघ्न दूर नहीं हो सकता और न कायरता दिखलानेसे जीवन ही बच सकता है। अतः किसी प्रकारका दुःख न मानकर परमात्माका ही ध्यान करना चाहिए ॥६१८॥
___ ध्यानके योग्य स्थान कैसा होना चाहिए जहाँपर इन्द्रियोंको अन्य पदार्थमें आसक्तिरूपी चोरके द्वारा कोई बाधा प्राप्त न हो अर्थात् इन्द्रियाँ इधर-उधर न भटक कर अपने में ही आसक्त रहें, आत्माकी सिद्धिके लिए ऐसे ही स्थानपर ध्यान करना चाहिए ॥ ६१९ ॥
१. अन्तरात्मनि । २. मनसि । ३. 'गुप्तेन्द्रियमना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । एकाग्रचिन्तनं ध्यानं निर्जरासंवरौ फलम् ॥ ३८॥-तत्त्वानुशासन ।-४. त्मा जगज्ज्योति-आ.। ५. करणग्रामनियंत्रणा। ६. सहत प.प.। ७. रोषतोषाभ्यां रहितः । ८. असमर्थत्वम् । ९. कातरत्वम् । १०. स्थाने । 'देशः कालश्च सोज्वेष्य सा चावस्थानुगम्यताम् । यदा यत्र यथाध्यानमपविघ्नं प्रसिद्धयति ॥ ३९॥-तत्त्वानुशासन । ११. व्यासन एव स्तेनः चौरस्तस्य विघ्नं न प्राप्नोति ।