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सोमदेव विरचित
[कल्प ३७, श्लो० ५६२
पद्धतिका
इति तदमृतनाथ स्मरशरमार्थ त्रिभुवनपतिमतिकेतन । मम दिश जगदीश प्रशमनिवेश त्वत्पदनुतिहदयं जिन ॥५२॥
घत्ता
अमरतरुणीनेत्रानन्दे महोत्सवचन्द्रमाः
स्मरमद मयध्वान्तध्वंसे मतः परमोऽर्यमा । अदयहृदयः कर्मारातौ नते च कृपात्मवा---
निति विसंडशव्यापारस्त्वं तथापि भवान्महान् ॥५६॥ अनन्तगुणसंनिधौं नियतबोध संपन्निधौ
श्रुताब्धिबुधसंस्तुते परिमितोक्तवृत्तस्थिते । जिनेश्वर सतीदृशे त्वयि मयि स्फुटं तादृशे
कथं सहशनिश्चयं तदिदमस्तु वस्तुद्वयम् ॥५६॥ "तदलमतुलत्वाग्वाणीपथस्तक्नोचिते
त्वयि गुणगणापात्रैः स्तोत्रैर्जडस्य हि मादृशः। प्रणतिविषये व्यापारेऽस्मिन्पुनः सुलभे जनः
कथमयमवागास्तां स्वामिन्नतोऽस्तु नमोऽस्तु ते ॥५६॥
इसलिए हे मोक्षपति ! हे कामके नाशक ! हे तीनों लोकोंके स्वामियोंकी बुद्धिके धाम ! हे शान्तिके आगार ! हे जगत्के स्वामी जिनेन्द्रदेव ! मुझे अपने चरणोंमें नमस्कार भाव रखने वाला हृदय प्रदान करें अर्थात् मेरा हृदय सदा आपके चरणों में लीन रहे ।। ५९२ ॥
हे जिनदेव ! देवांगनाओंके नेत्रोंको आनन्दित करनेके लिए आप आनन्ददायक चन्द्रमा हैं और कामके मदरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए उत्कृष्ट सूर्य हैं। कर्मरूपी शत्रके लिए आपके हृदयमें थोड़ी भी दया नहीं है किन्तु जो आपको नमस्कार करता है उस पर आप कृपालु हैं। इस प्रकार विपरीत आचरण करनेपर भी आप महान् हैं ।। ५९३ ॥
आप अनन्त गुण युक्त हैं और मैं थोड़ेसे परिमित ज्ञानका स्वामी हूँ। श्रुतके समुद्र विद्वानोंने आपका स्तवन किया है और मेरे पास परिमित शब्द हैं और परिमित छन्द हैं। हे जिनेश ! आपमें और मुझमें इतने स्पष्ट अन्तरके होते हुए हम दोनों समान कैसे हो सकते हैं। इस लिए मैं और आप दोनों दो वस्तु हैं ॥ ५९४ ॥ अतः हे अनुपम ! जब आप उस प्रकारके विद्वानोंके द्वारा स्तवन करनेके योग्य हैं, तो मुझ मूर्खका उन स्तवनोंसे, जो तुम्हारे गुणसमूहको छूते भी नहीं, आपका स्तवन करना व्यर्थ है । किन्तु स्तवन करना कठिन होते हुए भी आपको नमस्कार करना तो सरल है उसमें मैं मूक कैसे रह सकता हूँ । अतः हे स्वामिन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। ५९५ ॥
१. मोक्ष । २. कामविध्वसंक। ३. काममदमयो योऽसौ अन्धकारः तस्य विनाशे । ४. कथितः । ५. सूर्यः । ६. नने नरे। ७. विपरीत । ८. त्वयि । ९. मयि । १०. स्तोत्रमादृशो जडस्य । ११. भवत्सदृशवाणीमार्गयोग्ये । १२. अस्थानभूतैः स्तोत्ररलम् । १३. मौनवान् कथं तिष्ठतु अयं मल्लक्षणः ।