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सोमदेव विरचितं [कल्प ३७, श्लो० ५८५ - अद्वैत तत्त्वं वदति कोऽपि सुधियां धियमातनुते न सोऽपि । यत्पक्षहेतुदृष्टान्तवचनसंस्थाः कुतोऽत्र शिवशर्मसदन ॥५८५॥ हेतावनेकधर्मप्रवृद्धिराख्याति जिनेश्वरतत्त्वसिद्धिम् । अन्यत्पुनरखिलमतिव्यतीतमुद्भाति सर्वमुरुनयनिकेत ॥५८६।।
ज्ञान तो विचारक नहीं है और जो सविकल्प ज्ञान है वह निर्विकल्पके द्वारा गृहीत वस्तुमें ही प्रवृत्ति करता है। तथा वचन वस्तुको नहीं कहते। ऐसी स्थितिमें बौद्ध मतानुयायी कैसे आत्महितका कथन करते हैं ॥५८३-५८४॥
भावार्थ-बौद्ध क्षणिकवादी हैं। उनके मतसे प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षणमें नष्ट होती है। किन्तु वस्तुके प्रथम क्षणके नाश हो जानेपर दूसरा क्षण और दूसरे क्षणके नष्ट हो जानेपर तीसरा क्षण उत्पन्न होता रहता है और इस तरहसे क्षणसन्तान चलती रहती है, ऐसा वे मानते हैं। किन्तु यदि वस्तुके पूर्व क्षण और उत्तर क्षणमें एकत्व नहीं माना जाता है तो वह सन्तान बन नहीं सकती और यदि एकत्व माना जाता है तो वस्तु स्थायी सिद्ध हो जाती है। उसी एकत्वके कारण बड़े होनेपर भी हमें बचपनकी बातोंकी स्मृति रहती है और हममें से प्रत्येक यह अनुभव करता है कि जो मैं बच्चा था वहीं मैं अब युवा या वृद्ध हूँ। यह तो हुई बौद्धके क्षणिकवादकी आलोचना । बौद्ध ज्ञानको निर्विकल्पक मानता है और उसे ही वस्तुग्राही कहता है । तथा निर्विकल्पकके बाद जो सविकल्पक ज्ञान होता है उसे अवस्तुग्राही कहता है। निर्विकल्पकका विषय क्षणिक निरंश वस्तु है जो बौद्धकी दृष्टि से वास्तविक है और सविकल्पक स्थिर स्थूलाकार वस्तुको ग्रहण करता है जो उसकी दृष्टि से अवास्तविक है। चूंकि शब्द भी स्थिर स्थूलाकार वस्तुको ही कहता है, निरंश वस्तुको वह कह ही नहीं सकता । अतः बौद्ध शब्दको भी अवस्तुग्राही मानता है, इसी लिए बौद्धमतमें शब्दको प्रमाण नहीं माना गया। ऐसी स्थितिमें जब निर्विकल्पक और सविकल्पक अविचारक हैं और शब्द वस्तुग्राही नहीं है तब बौद्ध मतमें हिताहितका विचार और उपदेश कैसे सम्भव हो सकता है ?
[अब अद्वैतवादकी आलोचना करते हैं-]
हे शिव सुखके मन्दिर ! जो अद्वैत तत्त्वका कथन करता है वह भी बुद्धिमानोंके विचारोंको प्रभावित नहीं करता; क्योंकि अद्वैतवादमें पक्ष, हेतु और दृष्टान्त वगैरह कैसे बन सकते हैं ? अद्वैतकी सिद्धि के लिए हेतुको मान लेनेसे उसके साथमें हेतुके पक्षधर्मत्व सपक्ष-सत्त्व
आदि अनेक धर्म मानने पड़ते हैं और उनके माननेसे जिनेश्वरके द्वारा कहे गये द्वैत तत्त्वकी ही सिद्धि होती है-अद्वैतकी नहीं। अतः हे अनेकान्त नयके प्रणेता ! तुम्हारे द्वारा कहे गये तत्त्वोंके सिवा शेष सब बुद्धिसे परे प्रतीत होता है, वह बुद्धिको नहीं लगता ।।५८५-५८६॥
१. पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वादि । 'हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैत वाङमात्रतो न किम् ॥ २६ ॥-आप्तमीमांसा। २. हे अनेकान्तनयनिकेत ।